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चन्दना का सम्पूर्ण वृत्तान्त जीवन में मानवीय सम्बन्धों को सर्वदा उर्जस्वित करनेवाले तेजस्वीवृत्त का केन्द्र है । वह संसार में रहते हुए सबके लिए अनुरागमयी क्षणों में अमृतमयी बनकर सुख- वर्षा करती है और वैराग्य के क्षणों में समाज की विडम्बनाओं, त्रासदियों एवं संत्रासों का कालकूट विष पीनेवालों को सुधामृत - पान कराती है । उसका खुला सीधा-सपाट चारित्रिक उत्कर्ष सहज ही कर्ण - गह्वर में कह जाता है कि समाज का का रूप कितना ही क्रूर, वीभत्स एवं त्याज्य क्यों न हो; उसका ताना-बाना सद्गुणों एवं आदर्शों से ही बुना जाता है । चरित्र के बिना 'समाज' का सुन्दर महल रेत पर बने मकान जैसा होता है, जो जीवन के उहापोहों को क्षण भर भी सहन नहीं कर सकता और संकटों, उपसर्गों, संघर्षों एवं परिषहों के एक थपेड़े से ही धराशायी हो जाता है। समाज के सुस्थिर ताने-बाने में धर्म, दया, क्षमा, बुद्धि, विवेक, सदाचार, नीति, न्याय, उत्साह जैसे गुणों के रंग-बिरंगे फूलों को बुनना अनिवार्य होता है; क्योंकि वे फूल ही जीवन में रंग और सौन्दर्य भरते हैं। इस जीवन के प्रकाशयुक्त भावदीपों से ही युग को सन्देश प्राप्त होता है, आत्मोत्थान होता है; जो प्राकृतिक है, अवश्यम्भावी है । जीवन तो उसका अपवाद मात्र है। क्षण भर का सुन्दर समुज्जवल जीवन ही जीव की सर्वोत्तम उपलब्धि है । जीवन प्रसाद की सच्ची आधार - शिला 'विवेक' और 'विनय' है, 'साधना' उस प्रासाद का अलंकरण व वैभव है, देव-शास्त्र-गुरु का मार्ग उस महल की हरियाली व समृद्धि के सूचक है। आदर्श आगमोक्त चर्या का जीवन में रूप, रस व आनन्द देते हैं । अनागार अथवा सागार — दोनों ही मानव देह को सार्थक बनाने वाले दीपस्तम्भ हैं । सागार भी सच्चे मार्ग का अनुयायी बनकर विधि पर विजय प्राप्त कर कर्मों का नाश की भावभूमि निर्मित कर सकता है।
चंदना ने एक पल भी धर्म का साथ नहीं छोड़ा। विपरीत एवं विषम स्थिति में भी वीरबाला दीन-हीन नहीं बनी, उसके अनुसार धर्मयुक्त जीवन का एक क्षण भी, अधर्मयुक्त सैकड़ों-करोड़ों कल्पों के जीवन से श्रेयस्कर होता है । धर्म तो वह मित्र है, जो पल भर ही साथ नहीं छोड़ता है; जबकि ऐश्वर्य, भोग, धन तो यहीं साथ छोड़ जाते हैं । धर्म शाश्वत है, जो यश प्रदान करता हुआ युगों-युगों तक साक्षी रहता है 1
संसार की आश्चर्यबहुल और विभिन्न छलावों से भरी वास्तविकता को चन्दना ने प्रतिपल निकट से देखा था । उसके संवेदनशील अन्तः स्तल को झकझोरती तमाम आस्था यदि टिकी थी, तो मात्र एक अव्यक्त, अदृश्य आत्मिक शक्ति पर टिकी थी । वर्तमान को तो उसने 'जैसा बोया, वैसा पाया' के अनुरूप जिया और कर्म - सिद्धान्त को समझा। पूर्व-कर्म ही जीवों के कर्ता व दाता है । कर्मफल को तो विधाता भी नहीं बदल सकता । भाग्य की असम्भावित चेष्टाओं के सम्मुख कभी-कभी पुरुषार्थ भी विवश हो जाता है । जीव के लिये जो कर्मों ने निश्चित किया है, वह होकर रहता है । वह उससे बचने के लिये इधर-उधर जहाँ भी दौड़े, उसके पद चिह्न पीछा करते हैं ।
प्राकृतविद्या जनवरी - जून 2001 (संयुक्तांक) महावीर - चन्दना-1
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1- विशेषांक 0043
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