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जीवन के मित्र सहकारी और सहायक इन सुहृदों से वञ्चित रहकर चलना पसन्द करे, तो उसे महा-अरण्य में पथ भूला हुआ अन्धा, वधिर और पंगु कहना चाहिए। आज हम क्या बनने जा रहे हैं?
आज लोग धर्म का लोप करने को कटि बाँधे खड़े हैं। उन्हें धर्म शब्द से चिढ़ है, मानो अपने सच्चे साथियों से वैर है। क्षमा, मुदता, ऋजुता और अकिंचनता को वे आत्महीनता समझते हैं, सत्य-भाषण को मूर्खता कहते हैं। शौच को अण्डे-माँस में भूनकर पचा रहे हैं, संयम को नपुंसकत्व मानते हैं, तप उनके लिये पाषंड (ढोंग) है और त्याग को परिग्रहों के विपुल भार के नीचे शव-समाधि दे दी गई है, अकिञ्जन होना व्यक्तित्व को कुण्ठित करना है। उन्हें तो किञ्चन (कुछ) होने की धुन सवार है और इसका मूल्य चुकाने में वे अपना शील, धर्म, सभी दाँव पर लगा रहे हैं। ब्रह्मचर्य एक बकवास है, जिसे वे अस्वाभाविक एवं हानिकारक मानते हैं। प्राचीनकाल से आज तक जिन्होंने ब्रह्मचर्य धारण किया, वे या तो पुंस्त्वहीन थे या नितान्त मूर्ख, जिन्होंने देहेन्द्रियों को स्वाद से भर देने वाले अब्रह्म की उपासना नहीं की।
यही चिन्तन-दिशा पञ्च-अणुव्रत-पालन के विषय में है। जैसे अरबी-लिपि उल्टे हाथ से (वामगतिक) अक्षर बनाती है, वैसे ही उन अधार्मिकों का विचार, चिन्तन और वर्तन वाममार्गी है। वे प्रत्येक पुराण को जीर्ण और अनुपयोगी कहते हैं। उनकी इन विकृत परिभाषाओं का परिणाम स्पष्ट है। संसार घोर दु:खसन्तप्त है। अशान्ति शूल बनकर चुभने लगी है। रोग दूर करने को एक 'इंजेक्शन' लगवाता है और दूसरा रोग उत्पन्न कर लेता है। यह है आज की वास्तविक स्थिति, जिसमें आदमी घुट-घुट कर जीता है और प्रत्येक श्वास में मरण-वेदना का अनुभव करता है। इसीलिए तो शास्त्रकारों ने कहा- "बावत्तरी-कला-कुसला पंडिय-पूरिसा अपंडिया चेव ।
सव्व-कलाण वि पवरं जे धम्मकलं ण जाणंति ।।" अर्थात् यदि कोई बहत्तर कलाओं में कुशल है; किन्तु धर्म-कला में अकुशल है, तो वह चाहे पंडित हो या अपंडित हो, निष्फल है; क्योंकि कला तो उज्ज्वलता, कुशलता और रोचिष्णुता तथा आह्लादकता का नाम है। धर्मरहित कलायें तो नट-विद्या हैं। 'ज्यों रहीम नट-कुण्डली सिमटि कर कूदि जात' शिक्षा-प्राप्त नट कुण्डली (एक छोटे घेरे) में से सिमिटकर, कूदकर निकल जाता है, वैसे ही बाह्य सांसारिक चपलताओं का दर्शन ही धर्मरहित करता है। आत्मा का दृश्य उसके कृतित्वों में नहीं झलकता। इसी को 'मिथ्यादृष्टि' कहा गया है। मनुष्य की सत्य-दृष्टि उसके आत्मपरिज्ञान में है और इससे व्यतिरिक्त सभी दृष्टियाँ मिथ्या हैं। दशलक्षण धर्म और पञ्चअणु (अथवा महाव्रत) जीवन के अन्तरबाह्य, भौतिक आत्मिक पक्षों को सँवारते हैं, उनमें वास्तविक कला-कुशलता की उद्भावना करते हैं। परन्तु बाजार की दौने में धरी हुई मिठाई खाकर जिसका स्वाद
00 24 प्राकृतविद्या+जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक
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