________________
कठिनाइयों एवं उनसे बचने के उपायों से लोगों को अवगत कराया। उन्होंने आत्मा की उच्चता एवं पवित्रता पर बल दिया, उनके उपदेश सर्वसाधारण के लिए थे। उनके अनुयायियों में राजा-महाराजा थे, गरीब-किसान भी थे। उन्होंने चतुर्विध संघ की स्थापना की, जो मुनि-आर्यिका, श्रावक और श्राविका नाम से प्रसिद्ध हुआ था; वह आज भी प्रचलित है। भगवान् महावीर के सिद्धान्तों का प्रभाव जैनदर्शन के अतिरिक्त भारत में अन्यत्र भी मिलता है। वे तीर्थंकर थे, उन्होंने युगों-युगों से संत्रस्त मानवता के परित्राण एवं सर्वशान्ति की स्थापना के लिए मार्ग-निर्धारण किया था। द्वितीय शताब्दी में समन्तभद्र स्वामी ने महावीर के सिद्धांतों को, जो 'महावीर तीर्थ' के नाम से प्रसिद्ध थे, 'सर्वोदयं' नाम दिया, जिसका इस देश में आज महात्मा गाँधी जी के बाद सामान्यत: प्रयोग किया जाता है। ईसा से 527 वर्ष पूर्व भगवान् महावीर 72 वर्ष की आयु में 'पावापुर' से निर्वाण सिधारे, जिसकी खुशी में जगह-जगह दीप जलाये गए और तब से ही सम्पूर्ण भारतवर्ष में 'दीपावली पर्व' प्रचलित हुआ।
भगवान् महावीर के जीवन एवं कार्यों पर बड़ा विशाल नवीन और प्राचीन सभी तरह का साहित्य उपलब्ध है और उनके व्यक्तित्व के सम्बन्ध में भी अन्य पुरुषों की भाँति बहुत से पुराण, लोककथायें तथा अनेकों अतिशयोक्ति पूर्ण बातें लिखी गई हैं। फलत: उनके विषय में विशुद्ध वैज्ञानिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन व शोध करना बड़ा कठिन हो गया है; क्योंकि अध्ययन व शोध के जो साधन हैं, वे साम्प्रदायिकता या धार्मिकता से अछूते नहीं हैं, उनमें साम्प्रदायिकता की गंध विद्यमान है। ऊपर मैंने जो कुछ कहा है, वह भगवान् महावीर का केवल साधारण-सा जीवन-परिचय ही है। इसप्रकार यदि भगवान् महावीर का और अधिक ऐतिहासिक अध्ययन करना कठिन है, तो मेरी राय से यह अति उत्तम होगा कि उनके सिद्धान्तों का गंभीरतापूर्वक अध्ययन किया जाये और उनका जीवन में सक्रिय प्रयोग किया जाये; अपेक्षा इसके कि उनके व्यक्तिगत जीवन पर लम्बे-चौड़े वाद-विवाद या बहुविध बातें खड़ी हों।
वैशाली नगर अपने समय में उन्नति के चरम शिखर पर था और भगवान् महावीर की जन्मभूमि होने के कारण भारतीय धार्मिक जगत् में तो इसकी ख्याति और भी अधिक बढ़ गई थी। वैशाली की पुण्य-विभूतियों ने मानवता के उद्धार के लिये बड़े अच्छे-अच्छे सिद्धान्त सिखाये और स्वयं त्याग एवं साधनामय पावन जीवन अंगीकार किया। महावीर तो अपने समकालीनों में निश्चय ही सर्वश्रेष्ठ रहे। बौद्ध ग्रंथ 'महावस्तु' में लिखा है कि भगवान् बुद्ध ने वैशाली के 'अलारा' एवं 'उड्डक' में अपने प्रथम गुरु की खोज की ओर उनके निर्देशन में जैन बनकर रहे। पश्चात् उत्पन्न मध्यमार्ग अपनाकर वैशाली में अत्यधिक सम्मानित हुए। उन्हें राजकीय सम्मान प्राप्त था, वे कूटागारशाला, (जो मुख्यतया उनके लिए ही बनाई गई थी) के महावन में रहते थे। द्वितीय बौद्ध-परिषद् की
__प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक
- 31
Jain Educson International
For PrMate & Personal Use Only
www.jainelibrary.org