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भगवान् जिनेन्द्र का धर्म 'सर्वोदय' होकर भी यदि आज संसार की जनसंख्या के अधिकांश का प्रतिनिधित्व नहीं करता, तो यह दुःषमाकाल का प्रभाव ही कहना चाहिए; अन्यथा सम्यकरूपेण मानवोपयोगी जिन उदात्त एवं उदार तत्त्वों का समावेश श्रमणधर्म में है, वे समस्त भूमण्डल के लोक-समुदाय को सम्यग्दृष्टि देने में समर्थ हैं। अहिंसा और जिनशासन
मानवता का निर्माण जिस अहिंसा-प्रभृति चरित्र से सुलभ है, उसका व्यवहरणीय स्वरूप अखिलरूप में जिनशासन में निबद्ध है। व्यवहारनय और निश्चयनय द्वारा अहिंसादि का पालन तथा आत्मस्वरूप-परिज्ञान-निरूपण जैनधर्म का वह विशिष्ट अमृतमार्ग है, जिसे विश्व का पूर्वाग्रहरहित कोई भी व्यक्ति मानेगा और उसकी अकाट्यता पर अपनी सहमति प्रदर्शित करेगा। बारह अनुप्रेक्षाओं ने मर्त्यजीवन की असारता का इतना स्पष्ट विवेचन किया है कि रागान्धों के लोचनों का कज्जल भी धुलकर साफ हो जाएगा। पञ्च महाव्रत, जिन्हें त्यागी-मुनि धारण करते हैं, संसार से वैर-कलह और अशान्ति मिटाने के अचूक उपाय हैं। हिंसा, अशान्ति और परराष्ट्र-सीमातिक्रमण क्यों होते हैं? क्योंकि मानव का हृदय सच्चे धर्म की प्रतिष्ठा से रहित है। मैत्री, सह-अस्तित्व, समता तथा उदारवृत्तियों का कितना मूल्य है? यह जानकारी उसे नहीं है। धर्मरहित होने से पशुवाहक (जानवरों द्वारा जीवकार्जन करनेवाला) पशुओं पर नाना अत्याचार करता है, अधिक भार लादता है, नृशंसतापूर्वक शारीरिक यन्त्रणा देता है और यथावत् आहार-पानी नहीं देता। यही स्थिति मनुष्य-समाज में अधार्मिकता से बढ़ जाती है। अधिक श्रम और अल्प-वेतन, शोषण तथा उत्पीड़न ही तो हैं। एक कम तौलनेवाला, झूठ बोलनेवाला, मिलावट करनेवाला, ठगी, चोरी और भ्रष्टाचार का अपराधी नहीं तो क्या है? समाज में अपने-अपने क्षेत्र में हानिकर्ता और हानिभोक्ता दो दल हैं। हानिकर्ता व्यक्ति पर-उत्पीड़क है और हिंसा का भागी है। इस गम्भीर आत्मपतित, अनैतिक स्थिति का अन्त धर्म के बिना अशक्य है। मानव- जीवन के उदात्त-तत्त्वों का संकलन धर्म में समाविष्ट किया गया है। सम्यग्धर्म उत्तम जीवन की कला है। बिना वैर-विद्वेष के संसार-यात्रा कैसे की जा सकती है? ....यह धर्म सिखाता है। पञ्च अणुव्रतों का पालन ही यदि मनुष्य करने लगे, तो देवता स्वर्ग को छोड़कर पृथ्वी पर उतरने लगे। कथनी और करनी का भेद मिटाकर मन, वचन, काय की एकवाक्यता सिद्ध करने पर कल्पवृक्षों का युग आ सकता है। पाँच अणुव्रतों का पालन करें ____ संसार में व्याप्त इस मानसिक भ्रष्टाचार को, जो कथनी तथा करनी में भेद उत्पन्न करता है, सम्यग्दृष्टि वीतराग अच्छी प्रकार जानते थे। उन्हें मानव की इस प्रवृत्ति का तप:सिद्धि से ज्ञान हो गया था। इसीलिए समीचीन सर्वोदय धर्म की देशना
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प्राकृतविद्या जनवरी-जून'2001 (संयुक्तांक) + महावीर-चन्दना-विशेषांक
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