________________
पुन: प्रतिष्ठित किया।
यह ज्ञानावरण और काल-प्रभाव न्यायविनिश्चय में भी भ्रम उत्पन्न करता हो, ऐसी बात नहीं है; अपितु यह प्रत्येक क्षेत्र को, जिसमें धर्म और सम्यक्त्व मुख्य हैं, अधिक बाधित करता है। यदि काल-प्रभाव अधिक दुर्धर्ष नहीं होता, तो कलिकाल को उद्देश्य कर आचार्य धर्मग्लानि से आशंकित नहीं होते। जब उन्होंने
"कलि-प्रावषि मिथ्यात्व-मेघच्छन्नास दिक्ष्विह ।
खद्योतवत् सुदेष्टारो हा ! द्योतन्ते क्वचित् क्वचित् ।।" लिखा, जिसका आशय है कि कलियुग एक वर्षा ऋतु के समान है, जिसमें दिशायें मिथ्यात्व के मेघों से आच्छादित हो रही हैं, सम्यक् मार्ग सूझता नहीं और अच्छे श्रुतधर्मप्रभावक ज्ञानी खद्योत के समान कहीं-कहीं क्षणकाल के लिए दिखायी देते हैं। अर्थात यदि सुदेष्टाओं की वर्तमान में न्यूनता है, तो इसमें कालप्रभाव कारण है। दिगम्बरत्व : महान् साधना
__ आचार्य सोमदेव सूरि ने भी विस्मय व्यक्त करते हुए कहा कि कलियुग में यदि दिगम्बरत्व देखने को मिलता है, तो यह महान् आश्चर्य है। क्योंकि कलियुग में लोग इन्द्रिय-संयमी नहीं हो पाते और खाते भी बहुत हैं, मानो शरीर अन्नकीट ही हो। और दिगम्बर-मुनि की चर्या सम्पूर्ण रागजयशील तथा एकभुक्तिमय है। यह बात कालधर्म को चुनौती देने के समान है।' इसी अभिप्राय को व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा—
“काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकीटके।
एतच्चित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ।।” और वस्तुत: काल की प्रभविष्णुता दुर्जेय है। ‘काल: कलिर्वा कलुषाशयो वा' आचार्य समन्तभद्र ने कलिकाल को कलुषित-हृदय बताया है। इस युग में भद्रपरिणामी और इससे भी उत्कृष्ट विशेषणधारियों में भी चित्तविशुद्धि सर्वथा नहीं पायी जाती। उनकी मानसिक वृत्तियाँ भी राग-द्वेष और नाना उधेड़बुन में लगी हुई देखी जाती हैं। यह दुर्जय काल प्रभाव है। 'भद्रबाहुचरित' में ठीक ही लिखा है “बोधो धर्मो धनं सौख्यं कलौ हीनत्वमेष्यति” अर्थात् कलियुग में ज्ञान, धर्म, धन और सुख उत्तरोत्तर हीनता को प्राप्त हो जायेंगे। तब ज्ञान के स्थान पर ज्ञान का दर्प, धर्म के स्थान पर धर्मध्वज होने का प्रदर्शन, धन के स्थान पर अपार तृष्णा और सुख के स्थान पर अतृप्तिकर इन्द्रिय-विलास रह जायेंगे। लोगों की रुचि परिष्कृति और सत्-संस्कार से हीन होने के कारण उच्च-भूमियों से उतर जाएगी। ज्ञान, जिससे आत्महित-बोध हो, प्राय: तिरोहित हो जाएगा और सामान्यज्ञान का पाठ पढ़कर लोग महन्तबुद्धि का गर्व करने लगेंगे। धर्म-पालन करने में आत्म-रुचि, अन्तरंग प्रेरणा नहीं रहेगी; अपितु उसके प्रदर्शन से समाज में उच्चासन का मार्ग प्राप्त किया जाएगा, तथा धन का अपार संचय भी
Jain DD 20 term प्राकतविद्या-जनवरी-जन 2001 (संयक्तांक)-महावीर-चन्दला. विशेषांकary.org