Book Title: Prakrit Vidya 01 Author(s): Rajaram Jain, Sudip Jain Publisher: Kundkund Bharti TrustPage 20
________________ ऐसा सर्वहितकारी, सबके लिए उदय का मार्ग प्रशस्त करनेवाला, तीर्थंकरों द्वारा प्ररूपित यह धर्म 'सर्वोदय तीर्थ' के रूप में मानव-जाति के सौभाग्य से तपस्वियों की दीर्घ तप:साधना के पश्चात् पृथ्वी-पुत्रों को प्राप्त हुआ था। चौरासी लाख जीव-योनियों को इसने अभय दिया। वैर, विद्वेष, काम-वासना, कषाय-परिणति के चक्रवात में चकराते हुए मानव को इसने परित्राण और आत्म-कल्याण के स्वर दिये तथा श्रेयोमार्ग पर लगाया। इसकी सर्वोदयता ने, विश्व-प्राणीमैत्रीत्व ने जीवदया के मार्ग पर अतीतकाल से अद्यावधि जितना हितसाधन किया है, वह इतिहास की साक्षी में अनुपम है। इसीलिए स्तुतिकर्ताओं के कण्ठ भावगलित-स्वरों में पुकार-पुकार कर कहते हैं "सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं सर्वान्तशून्यं च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकरं निरन्तं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ।।" —यह उक्ति आचार्य समन्तभद्र की है, जो महान् तार्किक प्राचीन विद्वान् हैं। सर्वोदय वास्तव में तभी आ सकता है, जब राग-द्वेषों का क्षय होकर समत्व का उदय हो। समत्व का उदय ज्ञान के सम्यक्त्व पर आश्रित है। एक धनिक व्यक्ति किसी धनरहित से और एक ज्ञानसम्पन्न किसी अज्ञानी से घृणा, द्वेष अथवा राग-विराग करता है, वह इसलिए कि बाह्य पौद्गलिक तारतम्य (न्यूनाधिकता) से वह अपने को श्रेष्ठ तथा दूसरे 'को तुच्छ परिकल्पित करता है। किन्तु वास्तव में स्थिति इससे सर्वथा भिन्न है। यदि दैव से, पुरुषार्थ से अथवा शुभकर्म के उदय से सम्पत्ति और ज्ञान उन अभावग्रस्तों के पास आ जायें और पूर्वकाल की लघुता महत्ता में परिवर्तित हो जाये; तो उनके प्रति घृणा, उपेक्षा के पूर्वभाव भी बदल जायेंगे और सम्मानितों में नवीन नामावली लिखी जायेगी। इससे सिद्ध हुआ है कि संसार में सम्पन्नता और विपन्नता कालापेक्षी हैं। कयें में रँहट के रिक्त शराव (पात्र) भरते रहते हैं और भरित रिक्त होते रहते हैं। जो वस्तुत: में इस तथ्य को हृदयंगम कर लेता है, वह समता को तात्त्विकरूप से जान लेता है। उसी के राग-द्वेष का क्षय होता है, एवं वही सर्वोदय की भावना ला सकता है। श्रमण-संस्कृति का समताभाव श्रमण-संस्कृति का संन्यासी-वर्ग जीवनभर के लिए अन्तर-बाह्य ग्रन्थियों का परित्याग करता है, वह इसलिए भी उसे सम्पदाओं और विपदाओं की स्वप्न-सत्ता का ज्ञान हो जाता है। 'अरि-मित्र, महल-मसान, कञ्चन-काँच' में वह समता धारण करता है और उस धर्म में स्थित हो जाता है, जिसका लक्षण 'इष्टे स्थाने धत्ते' (सर्वार्थसिद्धि, 9/2) है और जो प्राणी को संसार-दावानल से निकालकर अक्षय आनन्द-समुद्र में निमग्न करता है। देव-देवेन्द्रपूजित भगवान् जिन सहस्रों शाखा-प्रशाखाओं से मण्डलायमान महान् धर्म-वृक्ष हैं, अधर्मतप्त वहाँ आश्रय लेते हैं। त्यागी मुनि जो धर्मप्रभावना करते हैं, मानो उस धर्मवृक्ष के नीचे अमृतोपदेश के अनंतकण विकीर्ण करते हैं, जो धर्म-क्षुधातुरों Jain OL.18temaप्राकतविद्या जनवरी-जन'2001 (संयुक्तांक) * महावीर-चन्दना-विशेषांक .orgPage Navigation
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