Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः
१५ आर्यभाषा: अर्थ-(तत्) प्रथमा-समर्थ प्रातिपदिक से (अस्य) षष्ठीविभक्ति के अर्थ में तथा (अस्मिन्) सप्तमीविभक्ति के अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (स्यात्) जो प्रथमा-समर्थ है यदि वह स्यात् सम्भावित हो, बन सके। यहां इतिकरण विवक्षा के लिये है।
उदा०-(षष्ठी-अर्थ) प्राकार परकोटा (चहारदीवारी) इन इष्टकाओं की बन सकता है ये-प्राकारीय इष्टका। प्रासाद-महल इस दारु-लकड़ी का बन सकता है यह-प्रासादीय दारु। (सप्तमी) प्राकार इस देश में बन सकता है यह-प्राकारीय देश। प्रासाद इस भूमि पर बन सकता है यह-प्रासादीया भूमि।
स्यात्' यहां सम्भावनेलमिति चेत् सिद्धाप्रयोगे (३।३।१५ ४) से सम्भावन-अर्थ में लिङ् प्रत्यय है। इष्टकाओं की अधिकता से यह सम्भावना की जाती है कि इन इष्टकाओं का प्राकार बन सकता है। देश की गुणवत्ता से यह सम्भावना की जाती है कि इस भूमि पर प्रासाद बन सकता है। 'इतिकरण' विवक्षा के लिये है। जहां विवक्षा होती है वहीं यह प्रत्ययविधि होती है। इससे यहां प्रत्यय नहीं होता है-प्रासादो देवदत्तस्य स्यात् । सूत्र में दो बार तत्' शब्द का पाठ समर्थ-विभक्ति की न्यायव्यवस्था के लिये किया गया है।
सिद्धि-प्राकारीयाः। प्राकार+सु+छ। प्राकार+ईय् । प्राकारीय+टाप् । प्राकारीया+ जस्। प्राकारीयाः ।
यहां प्रथमा-समर्थ, सम्भावनवाची प्राकार प्रातिपदिक से षष्ठीविभक्ति के अर्थ में इस सूत्र से यथाविहित प्राक्-क्रीतीय 'छ' प्रत्यय है। आयनेय०' (७।१।२) से 'छ' के स्थान में ईय् आदेश और यस्येति च' (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'अजाद्यतष्टा' (४।१।४) से टाप् प्रत्यय होता है। ऐसे ही-प्रासादीयं दारु' आदि।
ढञ्
(२) परिखाया ढञ्।१७। प०वि०-परिखाया: ५।१ ढञ् ११ । अनु०-तत्, अस्य, अस्मिन्, स्यात् इति चानुवर्तते। अन्वय:-तत् परिखाया अस्य, अस्मिन् ढञ् स्यात् ।
अर्थ:-तद् इति प्रथमासमर्थात् परिखा-शब्दात् प्रातिपदिकाद् अस्येति षष्ठ्यर्थेऽस्मिन्निति च सप्तम्यर्थे ढञ् प्रत्ययो भवति, यत् प्रथमासमर्थं स्याच्चेत् तद् भवति।
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