Book Title: Paniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 04
Author(s): Sudarshanacharya
Publisher: Bramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
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पञ्चमाध्यायस्य प्रथमः पादः अर्थ:-तस्मै इति चतुर्थीसमर्थाद् विकृतिवाचिन: प्रातिपदिकाद् हितमित्यस्मिन्नर्थे यथाविहितं प्रत्ययो भवति, तदर्थायां प्रकृतावभिधेयाम् ।
उदा०-अङ्गारेभ्यो हितानि-अङ्गारीयाणि काष्ठानि। प्रकाराय हिता:-प्राकारीया इष्टकाः। शङ्कवे हितम्-शकव्यं दारु। पिचवे हित:-पिचव्य: कार्पास:, इत्यादिकम्।
आर्यभाषा: अर्थ- (तस्मै) चतुर्थी-समर्थ (विकृते:) विकृतिवाची प्रातिपदिक से (हितम्) हित अर्थ में यथाविहित प्रत्यय होता है (तदर्थं प्रकृतौ) यदि वहां तदर्थ-उस विकृति के लिये प्रकृति-उपादान कारण अर्थ अभिधेय हो।
उदा०-अङ्गारों के लिये हितकारी-अङ्गारीय काष्ठ (लकड़ियां)। प्राकार चहारदीवारी के लिये हितकारी-प्राकारीय इष्टका (ईट)। शङ्क-खूटे के लिये हितकारीशकव्य दारु (लकड़ी)। पिचु-रूई के लिये हितकारी-पिचव्य कासि (कपास) इत्यादि।
सिद्धि-अङ्गारीयम् । अङ्गार+3+छ। अङ्गार् + ईय। अङ्गारीय+सु । अङ्गारीयम्।
यहां चतुर्थी-समर्थ अङ्गार' शब्द से यथाविहित प्राक् क्रीताच्छ:' (५।१।१) से हित-अर्थ में प्राक-क्रीतीय छ' प्रत्यय है। 'आयनेय०' (७११।२) से 'छु' के स्थान में ईय आदेश और 'यस्येति च (६।४।१४८) से अंग के अकार का लोप होता है। ऐसे ही-प्राकारीया इष्टका:।
(२) शङ्कव्यम् । शकु+3+यत् । शङ्को+य। शङ्कव्य+सु । शव्यम् ।
यहां चतुर्थी-समर्थ उकारान्त शकु' शब्द से उगवादिभ्यो यत्' (५।१।२) से यथाविहित यत्' प्रत्यय है। 'ओर्गणः' (६।४।१४६) से अंग को गुण और वान्तो यि प्रत्यये (६।१।७८) से वान्त (अव्) आदेश होता है। ऐसे ही-पिचव्यः ।
विशेष: किसी द्रव्य के उपादान-कारण को प्रकृति कहते हैं उस उपादान कारण का अवस्थान्तर विकृति कहाता है। जैसे अङ्गारों की प्रकृति काष्ठ हैं और काष्ठों की विकृति अङ्गार हैं। ऐसे ही सर्वत्र समझ लेवें। ढञ्
(६) छदिरुपधिबलेढञ्।१३। प०वि०-छदि:-उपधि-बले: ५ ।१ ढञ् १।१।
स०-छदिश्च उपधिश्च बलिश्च एतेषां समाहार:-छदिरुपधिबलि, तस्मात्-छदिरुपधिबले: (समाहारद्वन्द्व:) ।
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