Book Title: Nammayasundari Kaha
Author(s): Mahendrasuri, Pratibha Trivedi
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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४८२
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वीरदासस्स हरिणीवैसागिहें गमण। [४८२-४९५ ]
भणंति य'ता रूववई नारी आसनं जा न होइ एयाए । सहइ गहनाहजुण्हा सूरपहा जा न अल्लियई ॥ पुणरवि सविणयमेवं भणिओ पोयस्स नायगो ताहि । 'अज ! पसीयसु हरिणि' हरिणीवयणं कुणसु कन्ने ॥ ४८३ नयणेहिँ को न दीसइ केण समाणं न हुंति उल्लावा।। हिययाणंदं जं पुणु जणेइ तं माणुसं विरलं ॥ ४८४ दिट्ठो सि न तं सुंदर! निसामिया तुह गुणा अणन्नसमा । तुह दंसणूसुयमणो तेणाहं सुटु संजाया ॥
४८५ न धणेण मज्झ कजं किं पुण नासेइ मज्झ गुणमाणो । जइ न कुणसि नियचलणुप्पलेहिँ गेहं मम पवित्तं ॥ ४८६ नासइ तुज्झ वि नियमा गरुयत्तं मह गिहं अणितस्स । जं संलविही लोगो विहुणो(?) तिट्ठावरो एस ॥ ४८७ एवं बहुप्पयारं भणियं सोऊण तासि दासीणं । 'जणरंजणत्थगमणे धणवइ ! को नाम दोसो त्ति ॥ ४८८ इय मित्तवयणसवणा काममकामो वि पुरिसदुगसहिओ । सहस त्ति वीरदासो पत्तो गेहम्मि हरिणीए ॥ ४८९ अब्भुद्विऊण तीए पारद्धा आसणाइपडिवत्ती। एत्थंतरम्मि निहुयं पढियं एगाएँ चेडीए ॥ ४९० 'अन्नस्स बंधभोइणि ! नवपवईसेल्ल[क]यवइल्लस्स । आया(मेत्तवसिओ न कजकरणक्खमो एस ॥ ४९१ अमुणियतब्भावाए हरिणीए पुच्छिया रहे चेडी। 'साहेहि फुडं भद्दे ! भावत्थमिमस्स पढियस्स ।'
तीए भणियं'एय समीवे रमणी" दिट्ठा अम्हाहिँ तत्थ पत्ताहि । उबसिरंभतिलोत्तमंगोरीणं[.............] ॥ ४९३ तरुणजणमोहकारणभुवणब्भुयभूयदेहसोहाए । तीसे पासम्मि धुवं न सहसि तं हरिणि ! हरिणि व ॥ ४९४ तं मोत्तूण न कत्थइ मणभमरो रमइ नूणमेयस्स ।।
ता किं उवयारपरिस्समेण बज्झेण एयस्स ॥ ४९५ प्पहा. २ पसीयस. ३ हरिणी. ४ जाणइ. ५°मणो. ६ तिहुयं. ७ °पब्वय. ८ आयर. ९°खमो. १० दहे. ११ रमणीहिं. १२ °त्तिलोत्तिम.
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