Book Title: Nammayasundari Kaha
Author(s): Mahendrasuri, Pratibha Trivedi
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 101
________________ ८८ 5 10 15 20 25 १ कोहग्ग. Jain Education International महेसरदत्तकयपच्छायावो । [ ९९३-१००६ ] सत्तमयं सुद्ध ( ह ? )सामो पढमतिवन्नो य कुणइ नियतीए । ताण य रुक्खविरुक्खा होंति मसा चलणदेसेसु ॥' २ आन्नासु. [ महेसरदत्तकय पच्छायावो ] ९९८ एयं च पढिजंतं सवं आसन्नसंठिओडवहिओ । सुणइ महेसरदत्तो चिंतेई तो मणेणेवं ॥ 'आसि मए सुपुवं एसा सरमंडलं वियाणेड़ । सिड्डुं च तीय अहयं जाणामि जिणागमपसाया || कोर्हग्गियंगमवंफिस्स पसयलसन्नस्स । सुइगोयरं न पत्तं पडिभग्ग समग्गभग्गस्स || पहुट्टो गुणनिवहो असंतदोसा पट्टिया चित्ते । धुत्तूरियहिययस्स व विवरीया घाउणो जाया ॥ raat तीय गुणो दीसह अन्नासुं नेव नारीओ (सु) । अप्पा हु अप्पण चिय हा ! मुट्ठो दुट्ठचित्तेण || सो तारिओ विणओ सि (ति) बिय महुरक्खरा समुल्लावा । कत्थ मए लहियवा दूरीकय भागधेजेणं ॥ हा हा ! पाविडो हं जेण तहा भीसणम्मि दीवम्मि । गागणी अणाहा मुक्का निक्करुणचित्तेण ॥ महविरह भीरुहियया मए समं पन्थिया किर वराई । सो मे कओ महंतो ही सरणाओ भयं जायं ॥ ' एवं विचितयंतो संभरियासमसिणेहसम्भावो । सहस त्ति मेइणीए मुच्छाविहलंघलो पडिओ ॥ तक्खणमिलिएहिं संबंधवेहिं सहस त्ति सिसिरनीरेण । जलसिंचणपवणाओ किच्छेष सचेयणो होउं ॥ वारं वारं हत्थं गच्छ मुच्छं नियच्छमाणाणं । नीसेससजणाणं हाहारवभरियभवणाणं || नाइक्खर नियदुक्खं पुच्छंताणं पि निद्वबंधूणं । मोणवणं चेह एवं हिययम्मि झायंती || 'अप्पा हु अपण वय लज्जइ सरिएहिँ जेहिँ कम्मेहिं । कह ताणि बंधवाणं पुरओ तीरंति अक्खाउं ||' १००५ १००६ ३ 'जाग'. ४ निक्करण. ५ सगं. For Private & Personal Use Only ९९३ ६ वराई. ९९४ ९९५ ९९६ ९९७ ९९९ १००० १००१ १००२ १००३ १००४ www.jainelibrary.org

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