Book Title: Nammayasundari Kaha
Author(s): Mahendrasuri, Pratibha Trivedi
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai
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नम्मयासुंदरीए गणियत्तणे हरिणीकयोवएसो। [५८५-५९०] जिणगुणगणगहियाई थुइथोत्ताई पुणो परिगुणंती । चिट्ठइ मोक्खासाए परिभाविती इमं हियए ॥ 'कइया होज दिणं तं जत्थाहं साहुणीण मज्झम्मि ।
धम्मज्झाणोवगया करेज सिद्धंतसज्झायं ॥'
[नम्मयासुंदरीए गणियत्तणे हरिणीकयोवएसो] अनया जाणिऊण पडिगए पवहणवणिए 'सिद्धं मम वदं(कवी) ति पहट्टहियया समायाया नम्मयासुंदरिसमीवं हरिणी, भणिउं पवसा- 'हला! पेच्छ तेण वणिएण जं कयं । न दिन्नं मम देयं । तुमं पि मोसूण गट्ठो। धिरत्थु तस्स ववहारो जो तिहाए मोहिओ नियमाणुसं परिचयइ । ता भद्दे ! 10 मा तुमं तस्स कारणे खिजिहिसि । चेट्ट निया मम गिहे इमिणा मम परिय
णेण सद्धिं विलसंती । नाहं तुह भाराओ बीहेमि । मम वयणकारिणीए न ते किं पि मंगुलं भविस्सइ ।' तओ 'नूणं मम पउत्तिमपाविऊण निरासीभूओ पडिगओ ताओ । होउ तस्स कुसलं ममाए मंदभग्गाए न याणामि' किं पि अणुभवियत्वं' ति चिंतिऊण पडिभणियं-'का ममानिबुई तुह समीव15 ट्ठियाए ? तुममेव मम हियाहियं चिंतेसि' त्ति वुत्ते नीणिया भूमिगिहाओ, गिहमल्ले मोकलाचारेण चेहइ त्ति । अन्नया पुणो वि भणिया हरिणीए'सुंदरि! दुल्लहो माणुसीभावो, खणभंगुरं तारुनं, एयस्स विसिट्ठसुहाणुभवणमेव फलं । तं च संपुन्नं वेसाणमेव संपडइ, न कुलंगणाणं । जओ पहाणमवि
भोयणं पइदियहं भुंजमाणं न जीहाए तहा सुहमुप्पा[ए]इ, जहा नवनवं 30दि[ प. १९ B]णे दिणे । एवं पुरिसो नवनवो नवनवं भोगसुहं जणइ य ।
अन्नं चवियरिजइ सच्छंदं पेजइ मजं च अमयसारिच्छं । पञ्चक्खो विव सग्गो वेसाभावो किमिह बहुणा ? ॥ ५८७ तुज्झ वि रइरूवाए पुरिसा होहिंति किंकरागारा । वसियरणभाविया इव दाहिंति मणिच्छियं दवं ॥ एयाओ सबाओ अद्धं मे दिति नियविढत्तस्स । तं पुण मह इट्टयरी देजाहि चउत्थयं भायं ॥ ५८९ इय दासीधुत्तीए नाणाविहजुत्तिउत्तिनिउणाए।
भणिया वि न सा भिन्ना जलेण छुहलित्तभित्ति व ॥ ५९० १ पह. २ सटिं. ३ याणिमो. ४ मणच्छियं.
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