Book Title: Nammayasundari Kaha
Author(s): Mahendrasuri, Pratibha Trivedi
Publisher: Singhi Jain Shastra Shiksha Pith Mumbai

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Page 70
________________ ६५३ 15 [६४७-६६०] नम्मयासुंदरीकहा। को वि अउद्यो साओ संजाओ अज सव्ववत्थूणं । जह अम्हाणं जीहा तित्तिं न हु पावइ कहंचिं॥ ६४७ नाणावंजणपकनरंजिया हरिणियों विचिंतेइ । 'पढमं चिय किं न मए ठविया एसा इह निओए ॥ ६४८ संरोहिया य तत्तो कंबाघाया घयाइदवेहिं । भणिया- 'अजप्पभिई अभयं ते चिट्ठसु जहिच्छं॥ ६५९ चिंतेइ न.प. २१ A ]म्मया विहु 'जायं असुहस्स कालहरणं मे । जाया जीवियआसा करेमि ता निवुया धम्मं ॥ ६५० तत्तो य उभयसंझं हियए ठविऊण जिणवरं वीरं । वंदइ जायाणुना करेइ उचियं च सज्झायं ॥ ६५१ 10 भावेद भावणाओ वेरग्गकराई गुणइ कुलयाई। सवजणो अणुकूलो वाघायं को वि नो कुणइ ॥ ६५२ पहिरेइ डंडियाइं थालीमसिमंडियाइँ मलिणाई । परिकम्मेई न अंग लिंपइ य मसीऍ सविसेसं ॥ मुंजइ थोवं थोवं तहा वि चित्तस्स निबुइगुणेण । गेन्हइ उवचयमंगं उववासं कुणइ तो बहुसो॥ विसहइ सीयं तावं 'मा कंती [ होउ ] मह सरीरस्स ।' तह वि हु तणुलायन्नं न होइ से अन्नहा कह वि॥ ६५५ जइ वि सरीरं सुत्थं तावेइ तहा वि माणसं दुक्खं । रोयइ कलुणं कलुणं सुमरंती कुलहरं बहुसो ॥ ६५६ 20 [हरिणीमरणं, नम्मयासुंदरीए वेसाण सामिणिकरणं च] अह अन्नया कयाई हरिणी उग्गाइ सूलवियणाए । अभिभूया विलवंती पत्ता सहस त्ति पंचत्तं ॥ तो भणइ परियणो सो- 'महासई सेहिया हयासाए । तेण अकाले वि मया तारुनभरम्मि वढेती ॥' ६५८25 रुमा केणइ न खला न विहियमन्नं पि पेयकरणिज । दासीसुएहिँ केहि वि पक्खित्ता सा मसाणम्मि ॥ ६५९ जाणावियं च रन्नो हरिणी हरिया कयंतचोरेहिं । तेणावि समाइ8 पंचउलं जाणगं निययं ॥ कहिंचि. २ हरिणया. ३ अणुकूले. ४ घालीमसि मुंडियाई. ५ परिकाम्मइ. विहिय भ. नम०८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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