Book Title: Murti Puja Tattva Prakash Author(s): Gangadhar Mishra Publisher: Fulchand Hajarimal Vijapurwale View full book textPage 8
________________ ( ४ ) दाने दुर्गतिरस्ति चाप्युपकृती पापं कृषायामहो, सर्वेज्यप्रतिमार्चने च न फलं यै(वरैः कल्यते । आकाशे कुसुमं तथैव शशके शृङ्ग तुरंगे च यैस्तत्तन्नूतनकल्पकेभ्य इह नस्तेभ्यो महद्भयो नमः ॥ ६ ॥ भावार्थः-दान देने में, उपकार में, दया में पाप है और सब से पूजनीय भगवान् की मूर्ति की पूजा में फल नहीं है ऐसी जो महाशय कल्पना करते हैं, तथा आकाश में फूल की और घोड़ा या शशक (खरगोस ) में सींग की कल्पना करते हैं ऐसे नवीन कल्पना करने वाले उन महानुभावों को हमारा नमस्कार हो ॥६॥ __ "मूर्तिपूजा" का सीधा सादा अर्थ है प्रतिष्ठापित देव प्रतिमाओं का सत्कार विशेष अर्थात् स्नानादिक से पवित्र होकर यथाशक्ति समयानुसार फूल, फल, धूप, दीप, जल, अक्षत आदि को लेकर देवमन्दिर में या यथा योग्य पवित्र स्थान में जाकर विनय के साथ भक्ति-पूर्वक पंचोपचार या षोड़शो-- पचार से या केवल भव्य भावना से उन देव मूर्तियों को विशेष सत्कार करने का नाम 'मूर्ति-पूजा' है। ऊपर दिखलाया हुश्रा मूर्तिपूजा शब्द का अर्थ यदि आपकी समझ में अच्छी तरह नहीं पाया तो विशेष रूप से मूर्ति पूजा शब्द का अर्थ नीचे दिया जाता है आशा है आप इसे अच्छी तरह ध्यान देकर देखेंगे, पढ़ेगे, समझंगे, मानेगे और इससे आपके विशाल हृदय में पूर्ण 'सन्तोष होगा। - मूर्छा = मोह-समुच्छाययोः, अर्थात् मूर्छा धातु मोह और समुच्छ्रय अर्थ में है अतः मूर्ति श द की उत्पत्ति इस प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.comPage Navigation
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