Book Title: Munisuvrat Kavya
Author(s): Arhaddas, Bhujbal Shastri, Harnath Dvivedi
Publisher: Jain Siddhant Bhavan Aara
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मुनिसुव्रतकाव्यम् । विश्वः । स्फटिकचन्द्रकान्त रजतमयदढप्राकार इत्यर्थः समुल्लसतीति समुल्लसन् प्रस्फुरन समुलसन् पाण्डुकभद्रशालो येषान्ते तथाक्ताः पक्षे पाण्डकञ्च भवशाल ति पाण्डमभदशाले तदभिधाने वने समुल्लमती पाण्डकभदशाले येषान्ते तथोक्ताः । सौमनसालयाः शोभन मनो येषान्त सुमनसः सुमनसां विदुषामिमे सौमनसाः सौमनसा आलया अध्ययनशाला येषान्ते तथोक्ताः । “सुमनाः पुष्पमालत्योखिशे कोविदेऽपि" इति विश्वः । पक्षे सौमनसस्य तन्नामबनस्यालयानिलाः सुमनसान्देवानामिमे सौमनसाः सौमनसा आलया येषु ते तथोक्ताः। जिनालयाः चैत्यगेहाः । मेरूनपि महामेरुपर्वतानपि । जयन्ति अभिभवन्ति । चित्रम् आश्चर्यम् । श्लेषालंकारः ॥२१॥
भा० अ०-आश्चर्य की बात है कि वहाँ पर कोकिल जैसी पढ़ती हुई वटु मण्डली से युक्त, वा कोकिल से प्रतिध्वनित नन्दनवनसे युक्त, स्फटिक और चन्द्रकान्त मणिमय प्राकार से परिवेपित या पाण्डुक और भद्रशाला वनसे युक्त और भव्यों के आलयभूत या देवताभों के आलयभूत जिनचैत्यालय सुमेरुपर्वत की भी उच्चता को तिरस्कृत किये हुए थे॥५१॥
ग्रवारमग जिनालयत्विच्छन्ने भ्रमध्ये तपनो हठेन ॥
दूर्वाम्बुबुझ्या द्रवदश्वरोधक्लेशासहः किं कुरुतेऽयने द्वे॥ ५२ ॥ यत्रेत्यादि । यत्र पुर्याम् । अभ्रमध्ये अभ्रस्याकाशस्य मध्यन्तस्मिन् । अस्मगाजिनालयविरच्छन्ने अस्पगर्मो नीलरमन्तवार्क स्फटिकोपलस्स च तथोक्तः *अरमगर्भो हरिन्मणिः अर्ब स्फटिकसूर्ययो:"इत्युभयत्राप्यमरः । नाभ्यान्निर्मिता जिनालयास्तथोक्ता: "मयूरव्यंस कादयः" इति तत्पुरुषत्वान्मध्यमपदलोपस्तेषां स्विट कास्तिस्तया छन्न लिप्तन्तस्मिन् सति "स्युः प्रभाचिस्त्विद" इत्यमरः । दूर्वाम्बुद्ध या दूर्वा चाम्यु च दुर्वाम्बुनी तयोस्ते इति वा बुद्धिस्तथा हरिन्मणिस्फटिकयोः कान्ल्या दूर्वाम्बुनोर्बुद्धि यत इत्यर्थः । द्रवदश्वरोधल शासहः वन्तीति द्रवन्तः प्रयान्त स्ते च ते अश्वाश्च तथोक्तास्तेषां निजयानवाजिनो रोधः स्थापनन्तेन जात: क्लं शस्तन्न सहत इति वृषदश्वरोधल शासः । तपनः सूर्यः | हठेन बलात्कारेण । "प्रसभस्तु बलात्कारो हठः” इत्यमरः । द्वऽयने दक्षिणोत्तररूपे गती। "अयने ई पतिलक दक्षिणार्कस्य बत्सरः" इत्यमरः । कुरुते विधत्ते। किमेवं स्यादिति शङ्का। संकरालंकारः ॥ ५२॥ ___ भा० ०-नीलमणि तथा स्फटिकमणि से ड़ित, चैत्यालयों की कान्ति से परिपला. पित आकाश में हरी घास और जल की भ्रान्ति से त्रिमुग्ध हो उनकी और भागते हुए घोड़ों को रोकने में असमर्थ होकर ही मानों सूर्य ने उत्तरायण तथा दक्षिणायन का निर्माण किया। ५२।

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