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नहाता हा
मोक्षमार्ग की पूर्णता . द्रव्यार्थिकनय से जैनदर्शन में विश्व-द्रव्य-गुण सभी को सहज अर्थात् स्वयंभू स्वीकार किया गया है, तथा पर्यायार्थिकनय से एवं सूक्ष्मता से विचार किया जाय तो प्रत्येक पर्याय भी सहज/स्वयंभू है तथा अपनी योग्यता से ही उत्पन्न होती है।
पर्याय की उत्पत्ति के काल में उस पर्याय की उत्पत्ति में अनुकूल अन्य द्रव्य की पर्याय को मात्र निमित्तरूप से स्वीकृत किया जाता है; किन्तु अज्ञजन अपने अज्ञानभाव से उस निमित्त को ही कर्ता मानते हैं।
इस कर्त्तापने की मान्यता का छूटना ही वास्तविक वस्तु व्यवस्था का स्वीकार है तथा ऐसा जानना सम्यग्ज्ञान है और मानना सम्यग्दर्शन है। - प्रत्येक द्रव्य, स्वभाव से शुद्ध ही है। जाति अपेक्षा छह द्रव्यों में भी धर्म, अधर्म, आकाश व काल - ये चार द्रव्य तो कभी विभावरूप/ अशुद्धरूप परिणमते ही नहीं हैं।
मात्र जीव व पुद्गल - इन दो द्रव्यों में ही विभाव/अशुद्ध परिणमन होता है। इनके विभाव-परिणमन में भी मूल द्रव्यस्वभाव अशुद्ध नहीं होता है, वह तो सदैव शुद्ध ही रहता है।
मोक्षमार्गप्रकाशक में (पृष्ठ १९९) पर इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार आया है - ___ "एक तो द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना है, एक पर्याय अपेक्षा शुद्धपना है। वहाँ द्रव्य अपेक्षातोपरद्रव्य से भिन्नपना और अपने भावों से अभिन्नपना - उसका नाम शुद्धपना है। और पर्याय अपेक्षा औपाधिकभावों का अभाव होने का नाम शुद्धपना है। सो शुद्ध चितवन में द्रव्य अपेक्षा शुद्धपना ग्रहण किया है। वही समयसार व्याख्या में कहा है :
"एष एवाशेषद्रव्यान्तरभावेभ्यो भिन्नत्वेनोपास्यमानः शुद्ध इत्यभिलप्यते।"
- (गाथा ६ की टीका) इसका अर्थ यह है कि आत्मा प्रमत्त-अप्रमत्त नहीं है। सो यही