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अध्याय १ सूत्र २
इसी संबंध में रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहा है कि-
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न सम्यक्त्वसमं किंचित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यचनूमृताम् ॥ ३४ ॥
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अर्थ — तीनों काल और तीनों लोकमें जीवोंका सम्यग्दर्शनके समान दूसरा कोई कल्याण और मिथ्यात्त्वके समान अकल्याण नहीं है ।
भावार्थ —— अनंतकाल व्यतीत हो चुका, एक समय - वर्तमान चल रहा है और भविष्यमें अनंतकाल आयगा; - इन तीनों कालमें और अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक;-इन तीनों लोकोमें जीवका सर्वोत्कृष्ट उपकारी सम्यक्त्वके समान दूसरा कोई न तो है, न हुआ है, ओर न होगा | त्रिलोकस्थित इन्द्र, अहमिन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र या तीर्थंङ्कर इत्यादि चेतन और मरिण, मंत्र, औषधि - इत्यादि जड़ द्रव्य; -ये कोई भी सम्यक्त्वके समान उपकारी नही है । और इस जीवका सबसे अधिक बुराअहित करनेवाला मिथ्यात्वके समान दूसरा कोई जड़ या चेतन द्रव्य तीनकाल और तीनलोकमें न तो है, न हुआ है और न होगा । इसलिये मिथ्यात्वको छोड़नेके लिये परमपुरुषार्थं करो । समस्त संसारके दुःखोका नाश करनेवाला और आत्मकल्याणको प्रगट करनेवाला एकमात्र सम्यक्त्व ही है; इसलिये उसके प्रगट करनेका ही पुरुषार्थ करो ।
और फिर, सम्यक्त्व ही प्रथम कर्तव्य है,
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में इस प्रकार कहा है, श्रावकको पहले क्या करना चाहिये, सो कहते हैगहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुरगिरीव णिक्कंप | तं जाणे झाइज्जइ सावय ! दुक्खक्खयट्ठाए || ( मोक्षपाहुड़ गाथा ८६ ) अर्थ — पहले श्रावकको सुनिर्मल, मेरुके समान निष्कंप-अचल (चल, मल और प्रगाढ़ दूषणसे रहित अत्यंत निश्चल) सम्यक्त्व को ग्रहण
- इस संबंध मे अष्ट पाहुड़