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मोक्षशास्त्र (अ) यदि कोई जीव आरोपित वातं करें कि 'मेरा देह, मेरा घर, मेरी स्त्री, मेरा पुत्र' इत्यादि प्रकारसे भाषा बोलता है, (-बोलनेका भाव करता है ) उस समय मैं इन अन्य द्रव्योंसे भिन्न हूँ, वास्तवमें वे कोई मेरे नही, मैं उनका कुछ कर नहीं सकता' मैं भापा बोल सकता नहीं, ऐसी स्पष्टरूपसे यदि उस जीवके प्रतीति हो तो वह परमार्थ सत्य कहा जाता है।
(ब) कोई ग्रन्थकार राजा श्रेणिक और चेलना रानीका वर्णन करता हो उस समय वे दोनों ज्ञानस्वरूप आत्मा थे और मात्र थेणिक और चेलनाके मनुष्य भवमें उनका संबंध था' यदि यह बात उनके लक्षमें हो और ग्रंथ रचनेकी प्रवृत्ति हो तो वह परमार्थ सत्य है।
(देखो श्रमद् राजचद्र आवृत्ति २ पृष्ठ ६१३ ) (२) जीवने लौकिक सत्य बोलनेका अनेकवार भाव किया है, किन्तु परमार्थ सत्यका स्वरूप नहीं समझा, इसीलिये जोवका भवभ्रमण नहीं मिटता। सम्यग्दर्शनपूर्वक अभ्याससे परमार्थ सत्यकथनकी पहचान हो सकती है और उसके विशेष अभ्याससे सहज उपयोग रहा करता है। मिथ्यादृष्टिके कथनमे कारण विपरीतता, स्वरूप विपरीतता और भेदाभेद विपरीतता होती है इसीलिये लौकिक अपेक्षासे यदि वह कथन सत्य हो, तो भी परमार्थसे उसका सर्व कथन असत्य है ।
(३) जो वचन प्राणियोंको पीड़ा देनेके भाव सहित हो वह भी अप्रशस्त है और बादमें चाहे वचनोके अनुसार वस्तुस्थिति विद्यमान हो तो भी वह असत्य है।
(४) स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे अस्तित्वरूप वस्तुको अन्यथा कहना सो असत्य है । वस्तुके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका स्वरूप निम्नप्रकार है
द्रव्य-गुणोके समूह अथवा अपनी अपनी कालिक सर्व पर्यायोंका समूह सो द्रव्य है । द्रव्यका लक्षण सत् है, वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य सहित है । गुणपर्यायकेसमुदायका नाम द्रव्य है।