Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 831
________________ मोक्षशास्त्र अध्याय दशवाँ भूमिका १-आचार्यदेवने इस शास्त्रके शुरूआतमे पहले अध्यायके पहले ही सूत्रमे कहा था कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकता मोक्षका मार्ग हैकल्याणमार्ग है। उसके बाद सात तत्त्वोकी जो यथार्थ श्रद्धा है सो सम्यग्दर्शन है, इसप्रकार बतलाकर सात तत्त्वोंके नाम बतलाये और दस अध्याय में उन सात तत्त्वोका वर्णन किया। उनमे इस अन्तिम अध्यायमे मोक्षतत्त्वका वर्णन करके यह शास्त्र पूर्ण किया है। २-मोक्ष संवर-निर्जरापूर्वक होती है। इसीलिये नवमें अध्यायमे संवर-निर्जराका स्वरूप कहा, और अपूर्वकरण प्रगट करनेवाले सम्यक्त्वके सन्मुख जीवोसे लेकर चौदहवें गुरणस्थानमें विराजनेवाले केवलीभगवान तकके समस्त जीवोंके संवर-निर्जरा होती है ऐसा उसमें बतलाया। इस निर्जराकी पूर्णता होने पर जीव परमसमाधानरूप निर्वाणपदमे विराजता है; इस दशाको मोक्ष कहा जाता है । मोक्षदशा प्रगट करनेवाले जीवोने सर्व कार्य सिद्ध किया अतः "सिद्ध भगवान' कहे जाते है। ३-केवली भगवानके (तेरहवे और चौदहवें गुरणस्थानमें ) संवर-निर्जरा होती है अतः उनका उल्लेख नवमें अध्यायमे किया गया है किन्तु वहाँ केवलज्ञानका स्वरूप नही बतलाया । केवलज्ञान भावमोक्ष है और उस भावमोक्षके बलसे द्रव्यमोक्ष ( सिद्धदशा ) होता है। ( देखो प्रवचनसार अध्याय १ गाथा ८४ जयसेनाचार्यकी टीका ) इसीलिये इस अध्यायमे प्रथम भावमोक्षरूप केवलज्ञानका स्वरूप बताकर फिर द्रव्यमोक्षका स्वरूप बतलाया है। ___अब केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण बतलाते हैं मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम् ॥१॥

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