Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 854
________________ ७७४ मोक्षशास्त्र ७. बंध जीवका स्वाभाविक धर्म नहीं यदि बंध जीवका स्वाभाविक धर्म हो तो वह बंध जीवके सदा रहना चाहिये; किंतु यह तो संयोग वियोगरूप है, इसीलिये पुराना कर्म दूर होता है और यदि जीव विकार करे तो नवीन कर्म बंधता है। यदि बंध स्वाभाविक हो तो बन्धसे प्रथक् कोई मुक्तात्मा हो नहीं सकता। पुनश्च यदि बंध स्वाभाविक हो तो जीवों में परस्पर अंतर न दिखे। भिन्न कारणके बिना एक जातिके पदार्थोमें अंतर नहीं होता, किंतु जीवोंमें अंतर देखा जाता है । इसका कारण यह है कि जीवोंका लक्ष्य मिन्न २ पर वस्तु पर है । पर वस्तुएं अनेक प्रकार की होती है अतः पर द्रव्योंके पालंबनसे जीवकी अवस्था एक सदृश नहीं रहती। जीव स्वयं पराधीन होता रहता है, यह पराधीनता ही बंधनका कारण है। जैसे वंधन स्वाभाविक नहीं उसीप्रकार वह आकस्मिक भी नही अर्थात् विना कारण के उसको उत्पत्ति नही होती। प्रत्येक कार्य स्व-स्व के कारण अनुसार होता है । स्थूल बुद्धिवाले लोग उसका सच्चा कारण नहीं जानते अतः अकस्मात् कहते हैं। बंधका कारण जीवका अपराधरूप विकारीभाव है । जीवके विकारी भावोंमें तारतम्यता देखी जाती है इसीलिये वह क्षणिक है अतः उसके कारणसे होनेवाला कर्मबंध भी क्षणिक है । तारतम्यता सहित होने से कर्मबन्ध शाश्वत नहीं । शाश्वत और तारतम्यता इन दोनोके शीत्त और उष्णता की तरह परस्पर विरोध है । तारतम्यताका कारण क्षणभंगुर है; जिनका कारण क्षणिक हो वह कार्य शाश्वत कैसे हो सकता है ? कर्मका बंध और उदय तारतम्यता सहित ही होता है इसलिये बन्ध शाश्वतिक या स्वाभाविक वस्तु नहीं; इसीलिये यह स्वीकार करना ही चाहिये कि बंधके कारणोंका अभाव होने पर पूर्व बंधकी समाप्ति पूर्वक मोक्ष होता है। ( देखो तत्त्वार्थसार पृष्ठ ३६६) ८. सिद्धोंका लोकाग्रसे स्थानांवर नहीं होता प्रश्न-~-आत्मा मुक्त होने पर भी स्थानवाला होता है। जिसको स्थान हो वह एक स्थानमें स्थिर नहीं रहता कितु नीचे जाता अथवा

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