Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 876
________________ परिशिष्ट- ४ 305 शास्त्रका संक्षिप्त सार १. - इस जगत में जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये छह द्रव्य अनादि अनन्त हैं, इसे संक्षेपमें 'विश्व' कहते है | ( अध्याय ५ ) २ -- वे सत् है अतः उनका कोई कर्ता नही या उनका कोई नियामक नही, किन्तु विश्वका प्रत्येक द्रव्य स्वयं स्वतंत्ररूपसे नित्य स्थिर रहकर प्रतिसमय अपनी नवीन अवस्था प्रगट करता है और पुरानो अवस्था दूर करता है । अध्याय ५ सूत्र ३० ) ३ –उन छह द्रव्योंमे से जीवके अतिरिक्त पांच द्रव्य जड़ हैं उनमें ज्ञान, आनन्द गुरण नही है अतः वे सुखी-दुखी नही; जीवोंमें ज्ञान, आनन्द गुरण है किंतु वे अपनी भूलसे अनादिसे दुःखी हो रहे हैं; उनमें जो जीव मनसाहत हैं वे हित महितकी परीक्षा करनेकी शक्ति रखते हैं अतः ज्ञानियोने, उन्हें दुःख दूर कर अविनाशी सुख प्रगट करनेका उपदेश दिया है । ४ - ज्ञानी जीव मानता है कि शरीर की क्रिया, पर जीवकी दया, दान, व्रत आदि सुखके उपाय हैं; परन्तु यह उपाय खोटा है, यह बतलाने के लिये इस शास्त्रमे सबसे पहले ही यह वतलाया है कि सुखका मूल कारण सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन प्रगट होनेके बाद उस जीवके सम्यक् चारित्र प्रगट हुये विना रहता ही नहीं । ५-जीव ज्ञाता दृष्टा है और उसका व्यापार या जिसे उपयोग कहा जाता है वह जीवका लक्षरण है; राग, विकार, पुण्य, विकल्प, करुणा आदि जीवके लक्षण नही ये उसमे गतिरूपसे कहे हैं । ( अध्याय २ सूत्र ८ )

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