Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 877
________________ मोक्षशास्र ७६७ ६-दया, दान, अणुव्रत, महाव्रत, मैत्री आदि शुभभाव तथा मिथ्यात्व, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह इत्यादि अशुभभाव आस्रवके कारण हैं-ऐसा कहकर पुण्य-पाप दोनो को आस्रवके कारणरूपसे वर्णन किया है। (अध्याय ६ तथा ७ ) ७-मिथ्यादर्शन ससारका मूल है ऐसा अध्याय ८ सूत्र १ मे बतलाया है तथा बंधके दूसरे कारण और बधके भेदोका स्वरूप भी बतलाया है। ८-संसारका मूल कारण मिथ्यादर्शन है, वह सम्यगर्शनके द्वारा ही दूर हो सकता है, बिना सम्यग्दर्शनके उत्कृष्ट शुभभावके द्वारा भी वह दूर नही हो सकता । सवर-निर्जरारूप धर्मका प्रारभ सम्यग्दर्शनसे ही होता है । सम्यग्दर्शन प्रगट होने के बाद सम्यग्चारित्रमे क्रमशः शुद्धि प्रगट होने पर श्रावकदशा तथा मुनिदशा कैसी होती है यह भी बतलाया है। यह भी बतलाया है कि मुनि बावीस परीषहों पर जय करते है। यदि किसी समय भी मुनि परीषह जय न करे तो उसके बंध होता है, इस विषयका समावेश आठवें बध अधिकार मे आगया है और परीषह जय ही सवर-निर्जरारूप हैं अतः यह विषय नवमें अध्यायमें बतलाया है। 8-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रकी एकताकी पूर्णता होने पर (अर्थात् संवर निर्जराकी पूर्णता होने पर ) अशुद्धताका सर्वथा नाश होकर जीव पूर्णतया जड़कर्म और शरीरसे पृथक् होता है और पुनरागमन रहित अविचल सुखदशा प्राप्त करता है, यही मोक्षतत्त्व है, इसका वर्णन दसवें अध्यायमे किया है। ___ इसप्रकार इस शास्त्रके विषयका सक्षिप्त सार है। "मोक्षशास्त्र गुजराती टीकाका हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ। पं० परमेष्ठीदास जैन न्यायतीर्थ । AL RAICH

Loading...

Page Navigation
1 ... 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893