Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 873
________________ परिशिष्ट ३ ७६३ णाम हैं-ऐसा-व्यवहार द्वारा कहा और समझाया जाता है किन्तु उस प्रत्येक समयमें निश्चयनय एक ही मुख्य और आदरणीय है ऐसा ज्ञानियोका कथन है। ऐसा मानना कि किसी समय निश्चयनय पादरणीय है और किसी समय व्यवहारनय आदरणीय है सो भूल है। तीनों काल अकेले निश्चयनयके आश्रयसे ही धर्म प्रगट होता है-ऐसा समझना। प्रश्न-क्या साधक जीवके नय होता हो नही ? उत्तर-साधक दशामें ही नय होता है। क्योंकि केवलोके तो प्रमाण है अतः उनके नय नही होता, अज्ञानी ऐसा मानते हैं कि व्यवहारनयके आश्रयसे धर्म होता है इसीलिये उनको तो व्यवहारनय ही निश्चयनय होगया, अर्थात् अज्ञानीके सच्चा नय नही होता। इस तरह साधक जीवके ही उनके श्रुतज्ञानमें नय होता है। निर्विकल्पदशासे अतिरिक्त कालमे जव उनके नयरूपसे श्रुतज्ञानका भेदरूप उपयोग होता है तब, और संसारके शुभाशुभ भावमे हो या स्वाध्याय, व्रत नियमादि कार्योमें हो तब जो विकल्प उठते है वह सब व्यवहारनयके विषय हैं, परन्तु उस समय भी उनके ज्ञानमें एक निश्चयनय ही आदरणीय है ( अतः उस समय व्यवहारनय है तथापि वह आदरणीय नही होनेसे ) उनकी शुद्धता बढ़ती है। इस तरह सविकल्प दशामे भी निश्चयनय आदरणीय है और जब व्यवहारनय उपयोग रूप हो तो भी ज्ञानमे उसी समय हेयरूपसे है। इस तरह निश्चय और व्यवहारनय-ये दोनों साधक जीवोके एक ही समयमे होते हैं। इसलिये यह मान्यता ठीक नही है कि साधक जीवोके नय होता ही नही, किन्तु साधक जीवोके ही निश्चय और व्यवहार दोनों नय एक ही साथ होते हैं । निश्चयनयके आश्रयके बिना सच्चा व्यवहारनय होता ही नही। जिसके अभिप्रायमे व्यवहारनयका प्राश्रय हो उसके तो निश्चयनय रहा ही नही, क्योकि उसके तो व्यवहारनय ही निश्चयनय होगया। १००

Loading...

Page Navigation
1 ... 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893