Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 867
________________ परिशिष्ट १ ध्रौव्य है वह उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य आत्मा का ही है। उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य भी परस्परमें अभिन्न ही है । __ इस तरह यदि रत्नत्रयके जितने विशेषण हैं वे सब आत्माके ही हैं और आत्मासे अभिन्न हैं तो रत्नत्रयको भी आत्मास्वरूप ही मानना चाहिए। ___ इस प्रकार अभेदरूपसे जो निजात्माका दर्शन-ज्ञान-चारित्र है वह निश्चय रत्नत्रय है, इसके समुदायको ( एकताको) निश्चयमोक्षमार्ग कहते है, यही मोक्षमार्ग है। निश्चय व्यवहार माननेका प्रयोजन स्यात् सम्यक्त्वज्ञानचारित्ररूपः पर्यायार्थादेशतो मुक्तिमार्गः । एको ज्ञाता सर्वदेवाद्वितीयः स्याद् द्रव्यार्थादेशतो मुक्तिमार्गः ॥२१॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्ररूप प्रथक् २ पर्यायो द्वारा जीवको जानना सो पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है और इन सब पर्यायोंमें ज्ञाता जीव एक ही सदा रहता है, पर्याय तथा जीवके कोई भेद नहीं है-इस प्रकार रत्नत्रयसे आत्माको अभिन्न जानना सो द्रव्याथिक नयकी अपेक्षासे मोक्षमार्ग है। अर्थात-रत्नत्रयसे जीव अभिन्न है अथवा भिन्न है ऐसा जानना सो द्रव्याथिक और पर्यायाथिकनयका स्वरूप है। परन्तु रत्नत्रयमें भेदपूर्वक प्रवृत्ति होना सो व्यवहार मोक्षमार्ग है और अभेदपूर्वक प्रवृत्ति होना सो निश्चय मोक्षमार्ग है । अतएव उपरोक्त श्लोकका तात्पर्य यह है कि - आत्माको प्रथम द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय द्वारा जानकर पर्याय पर से लक्ष्य हटाकर अपने त्रिकाली सामान्य चैतन्य स्वभाव-जो शुद्ध द्रव्याथिक नयका विषय है-उसकी ओर झुकनेसे शुद्धता और निश्चय रत्नत्रय प्रगट होता है। तत्त्वार्थसार ग्रन्थका प्रयोजन (वसंततिलका) तत्वार्थसारमिति यः समधिर्विदित्वा,

Loading...

Page Navigation
1 ... 865 866 867 868 869 870 871 872 873 874 875 876 877 878 879 880 881 882 883 884 885 886 887 888 889 890 891 892 893