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मोक्षशास्त्र
टीका १-पूर्व प्रयोगका उदाहरण-जैसे कुम्हार चाकको घुमाकर हाथ रोक लेता है तथापि वह चाक पूर्वके वेगसे घूमता रहता है, उसीप्रकार जीव भी संसार अवस्थामें मोक्ष प्राप्तिके लिये बारम्बार अभ्यास ( उद्यम, प्रयत्न, पुरुषार्थ ) करता था, वह अभ्यास छूट जाता है तथापि पूर्वके अभ्यासके संस्कारसे मुक्त जीवके ऊर्ध्वगमन होता है।
२-असंगका उदाहरण-जिसप्रकार तूम्बेको जबतक लेपका संयोग रहता है तबतक वह स्व के क्षणिक उपादानकी योग्यताके कारण पानी में डूबा हुआ रहता है, किन्तु जब लेप (मिट्टी ) गलकर दूर हो जाती है तब वह पानीके ऊपर-स्वयं अपनी योग्यतासे आ जाता है; उसीप्रकार जबतक जीव संगवाला होता है तबतक अपनी योग्यतासे संसार समुद्र में डूबा रहता है और संग रहित होने पर ऊर्ध्वगमन करके लोकके अग्रभागमें चला जाता है।
३-बन्ध छेदका उदाहरण-जैसे एरंड वृक्षका सूखा फल-जब चटकता है तब वह बन्धनसे छूट जानेसे उसका बीज ऊपर जाता है, उसीप्रकार जब जीवकी पकदशा ( मुक्तअवस्था ) होने पर कर्म बन्धके छेद पूर्वक वह मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है।
४-ऊर्ध्वगमन स्वभावका उदाहरण-जिसप्रकार अग्निकी शिखा (लो) का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है अर्थात् हवाके अभावमें जैसे अग्नि (दीपकादि) की लौ ऊपरको जाती है उसीप्रकार जीवका स्वभाव ऊध्वंगमन करना है। इसीलिये मुक्तदशा होने पर जीव भी ऊर्ध्वगमन करता है ॥ ७॥
लोकाग्रसे आगे नहीं जानेका कारण बतलाते हैं
धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ अर्थ-[ धर्मास्तिकायाभावात् ] आगे ( अलोकमें ) धर्मास्तिकाय का अभाव है अतः मुक्त जीव लोकके अंततक ही जाता है। .