Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 840
________________ मोक्षशास्त्र जिन जीवों के सम्यग्दर्शनादि प्राप्त करने की योग्यता हो वे भव्य जीव कहलाते हैं । जब जीवके सम्यग्दर्शनादि पूर्णरूपमें प्रगट हो जाते हैं तब उस आत्मामें 'भव्यत्व' का व्यवहार मिट जाता है । इस सम्बन्ध में यह विशेष ध्यान रहे कि यद्यपि 'भव्यत्व' पारिणामिक भाव है तथापि, जिस प्रकार पर्यायार्थिकनयसे जीवके सम्यग्दर्शनादि पर्यायका निमित्तरूपसे घातक देशघाति तथा सर्वधाति नामका मोहादिक कर्म सामान्य है उसीप्रकार, जीवके भव्यत्वगुरणको भी कर्मसामान्य निमित्तरूपमें प्रच्छादक कहा जा सकता है । (देखो, हिन्दी समयसार, श्री जयसेनाचार्यकी संस्कृत टोका पृष्ठ ४२३) सिद्धत्व प्रगट होनेपर भव्यत्त्व गुरगकी विकारी पर्यायका नाश हो जाता है, यह अपेक्षा लक्ष्य मे रखकर भव्यत्वभावका नाश वतलाया है । दूसरे अध्यायके ७ वें सूत्रकी टीका में ऐसा कहा है कि भव्यत्त्व भावकी पर्यायकी अशुद्धताका नाश होता है, इसलिये वह टीका यहाँ भी बाँचना ॥ ३ ॥ ७६० अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शन सिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ अर्थ - [ केवलसम्यक्त्व ज्ञान दर्शन सिद्धत्वेभ्यः अन्यत्र ] केवलसम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्व इन भावोके अतिरिक्त अन्य भावोके अभावसे मोक्ष होता है । टीका मुक्त अवस्थामें केवलज्ञानादि गुरणोंके साथ जिन गुणोंका सहभावी संबंध है ऐसे अनन्तवीर्यं, अनन्तसुख, अनन्तदान, अनन्तलाभ, अनन्तभोग, अनन्तउपभोग इत्यादि गुण भी होते हैं ॥ ४ ॥ अब मुक्त जीवोंका स्थान बतलाते हैं। तदनंतरमूर्ध्वं गच्छत्या लोकांतात् ॥ ५ ॥ अर्थ - [ तदनन्तरम् ] तुरन्त हो [ऊध्वं प्रालोकांतात् गच्छति ] ऊर्ध्वगमन करके लोकके अग्रभाग तक जाता है ।

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