Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 833
________________ अध्याय १० सूत्र १ ७५३ है, इसीलिये इस ज्ञानको भायिकज्ञान कहते हैं। जब केवलज्ञान प्रगट होता है उसीसमय केवलदर्शन और संपूर्ण वीर्य भी प्रगट होता है और दर्शनावरण तथा अंतरायकर्मका सर्वथा अभाव (नाश) हो जाता है। ४-केवलज्ञान होनेपर भावमोक्ष हुवा कहलाता है (यह अरिहंत दशा है ) और आयुष्यकी स्थिति पूरी होनेपर चार अघातिया कर्मोका अभाव होकर द्रव्यमोक्ष होता है, यही सिद्धदशा है, मोक्ष केवलज्ञान पूर्वक ही होता है इसलिये मोक्षका वर्णन करने पर उसमे पहले केवलज्ञानको उत्पत्तिका सूत्र बतलाया है। ५-प्रश्न-क्या यह मान्यता ठीक है कि जीवके तेरहवे गुणस्थान में अनन्तवीर्य प्रगट हुआ है तथापि योग आदि गुणका विकार रहता है और संसारित्व रहता है इसका कारण अघातिकर्मका उदय है ? उत्तर-यह मान्यता यथार्थ नही है। तेरहवें गुणस्थानमें संसारित्व रहनेका यथार्थ कारण यह है कि वहाँ जीवके योग गुणका विकार है तथा जीवके प्रदेशोको वर्तमान योग्यता उस क्षेत्रमे (-शरीरके साथ ) रहने की है, तथा जीवके अव्याबाध, * निर्नामो, निर्गोत्रो और अनायु आदिगुग अभी पूर्ण प्रगट नही हुआ इस प्रकार जीव अपने ही कारणसे ससारमे रहता है। वास्तवमे जड़ अघातिकर्मके उदयके कारणसे या किसी परके कारणसे जीव संसारमे रहता है, यह मान्यता बिल्कुल असत् है । यह तो मात्र निमित्तका उपचार करनेवाला व्यवहार कथन है कि 'तेरहवे गुणस्थानमे चार अघातिकर्मोका उदय है इसीलिये जीव सिद्धत्वको प्राप्त नहीं होता' जीवके अपने विकारी भावके कारण ससार दशा होनेसे तेरहवे और चौदहवें गुणस्थानमे भी जड़कर्मके साथ निमित्त-नैमित्तिक संबंध कैसा होता है वह बंतानेके लिये कर्म शालोमे ऊपर बताये अनुसार व्यवहार कथन किया जाता है । वास्तवमे कर्मके उदय, सत्ता इत्यादिके कारण कोई जोव संसारमे रहता है यह मानना सो, जीव और जड़कर्मको एकमेक माननेरूप मिथ्या-मान्यता है। शास्त्रोका अर्थ करनेमे अज्ञानियोकी मूलभूत भूल * यह गुणोके नाम वृ० द्रव्यसग्रह गा० १३-१४ की टीका में हैं।

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