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अध्याय ६ सूत्र ८
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टीका १-यहाँसे लेकर सत्रहवें सूत्र तक परीषहका वर्णन है। इस विषयमे जीवोकी बडी भूल होती है, इसलिये यह भूल दूर करनेके लिये यहाँ परीषह जयका यथार्थ स्वरूप बतलाया है। इस सूत्रमें प्रथम 'मार्गाच्यवन' शब्दका प्रयोग किया है इसका अर्थ है मार्गसे च्युत न होना । जो जीव मार्गसे ( सम्यग्दर्शनादिसे ) च्युत हो जाय उसके संवर नही होता किन्तु वन्ध होता है, क्योकि उसने परीषह जय नहीं किया किन्तु स्वयं विकारसे घाता गया। अब इसके बादके सूत्र ६-१०-११ के साथ सम्बन्ध बतानेको खास आवश्यकता है।
२~-दसवे सूत्रमे कहा गया है कि-दशवे, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानमे बाईस परीषहोमेसे आठ तो होती ही नही अर्थात् उनको जीतना नही है, और वाकीकी चौदह परीषह होती हैं उन्हे वह जीतता है अर्थात् क्षुधा, तृषा आदि परीषहोसे उस गुणस्थानवर्ती जीव घाता नही जाता किन्तु उनपर जय प्राप्त करता है अर्थात् उन गुणस्थानोमें भूख, प्यास आदि उत्पन्न होनेका निमित्त कारणरूप कर्मका उदय होने पर भी वे निर्मोही जीव उनमे मुक्त नहीं होते, इसीलिये उनके क्षुधा तृषा आदि सम्बन्धी विकल्प भी नहीं उठता, इसप्रकार वे जीव उन परीषहो पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करते हैं। इसीसे उन गुणस्थानवर्ती जीवोके रोटो आदिका आहार औषधादिका ग्रहण तथा पानी आदि ग्रहण नही होता ऐसा नियम है।
३-परीषहके बारेमे यह बात विशेषरूपसे ध्यान रखनी चाहिये कि संक्लेश रहित भावोसे परीषहोको जीत लेनेसे ही संवर होता है । यदि दसमे ग्यारहवे तथा बारहवें गुणस्थानमें खाने पीने आदिका विकल्प आये तो सवर कैसे हो? और परीषह जय हुमा कैसे कहलाये ? दसमे सूत्रमे कहा है कि चौदह परीषहो पर जय प्राप्त करनेसे ही संवर होता है। सातवें गुणस्थानमे ही जीवके खाने पीनेका विकल्प नही उठता क्योकि वहाँ निर्विकल्प दशा है, वहाँ बुद्धिगम्य नही ऐसे अबुद्धिपूर्वक विकल्प होता है किन्तु वहाँ खाने पीनेके विकल्प नहीं होते इसलिये उन विकल्पोंके साथ