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अध्याय ६ सूत्र ११
६६३ स्थानमे वेदादिकका मंद उदय है वहाँ मैथुनादिक क्रिया व्यक्त नहीं है, इसीलिये वहाँ ब्रह्मचर्य ही कहा है तथापि वहाँ तारतम्यतासे मैथुनादिकका सद्भाव कहा जाता है। उसीप्रकार केवली भगवानके असाताका अति मंद उदय है, उसके उदयमें ऐसी भूख नहीं होती कि जो शरीरको क्षीण करे; पुनश्च मोहके अभावसे क्षुधाजनित दुख भी नहीं है और इसीलिये आहार ग्रहण करना भी नहीं है । अतः केवली भगवानके क्षुधादिकका अभाव ही है किन्तु मात्र उदयकी अपेक्षासे तारतम्यतासे उसका सद्भाव कहा जाता है।
(४) शंका-केवली भगवानके आहारादिकके बिना भूख (-क्षुधा) की शांति कैसे होती है ?
उत्तर--केवलीके असाताका उदय अत्यन्त मन्द है, यदि ऐसी भूख लगे कि आहारादिकके द्वारा ही शांत हो तो मद उदय कहाँ रहा ? देव, भोगभूमिया आदिके असाताका किंचित् मंद उदय है तथापि उनके बहुत समयके बाद किंचित् ही आहार ग्रहण होता है तो फिर केवलीके तो असाता का उदय अत्यंतही मंद है इसीलिये उनके आहारका अभाव ही है। असाताका तीन उदय हो और मोहके द्वारा उसमें युक्त हो तो ही आहार हो सकता है।
(५) शंका-देवों तथा भोगभूमियोंका शरीर ही ऐसा है कि उसके अधिक समयके बाद थोड़ी भूख लगती है, किन्तु केवली भगवानका शरीर तो कर्मभूमिका औदारिक शरीर है, इसीलिये उनका शरीर बिना आहारके उत्कृष्ट रूपसे कुछ कम एक कोटी पूर्व तक कैसे रह सकता है ?
समाधान-देवादिकोंका शरीर भी कर्मके ही निमित्तसे है । यहाँ केवली भगवानके शरीरमें पहले केश-नख बढ़ते थे, छाया होती थी और निगोदिया जीव रहते थे, किन्तु केवलज्ञान होने पर अब केश-नख नहीं बढ़ते, छाया नहीं होती और निगोदिया जीव नही होते। इसतरह अनेक प्रकारसे शरीरकी अवस्था अन्यथा हुई, उसीप्रकार बिना आहारके भी शरीर जैसाका तैसा बना रहे-ऐसी अवस्था भी हुई।
प्रत्यक्षमे देखो ! अन्य जीवोंके वृद्धत्व आने पर शरीर शिथिल हो जाता है, परन्तु केवली भगवानके तो आयुके अन्त तक भी शरीर शिथिल