Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 825
________________ अध्याय & उपसंहार ७४५ आगे असंख्यात लब्धिस्थान प्राप्त कर सकते हैं, इससे आागेके स्थान प्राप्त नहीं कर सकते । निर्ग्रथ मुनि इन पाँचवीवार कहे गये लब्धिस्थानोंसे आगे कषायरहित संयमलब्धिस्थानों को प्राप्त कर सकता है । ये निर्ग्रन्थ मुनि भी आगेके असंख्यात लब्धिस्थानोंकी प्राप्ति कर सकते है, पश्चात् रुक जाता है । उसके बाद एक संयमलब्धिस्थानको प्राप्त करके स्नातक निर्वाणको प्राप्त करता है । इसप्रकार संयमलब्धिके स्थान हैं, उनमे अविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षासे संयमकी प्राप्ति अनन्तगुणी होती है ॥४७॥ उपसंहार १ - इस अध्याय में श्रात्माकी धर्मपरिणतिका स्वरूप कहा है; इस परिणतिको 'जिन' कहते है । २- अपूर्वकरण परिणामको प्राप्त हुये प्रथमोपशम सम्यक्त्वके सम्मुख जीवोंको 'जिन' कहा जाता है । ( गोमट्टसार जीवकांड गाथा १ टीका, पृष्ठ १६ ) यहाँसे लेकर पूर्णशुद्धि प्राप्त करनेवाले सब जीव सामान्यतया 'जिन' कहलाते है । श्री प्रवचनसारके तीसरे श्रध्यायकी पहली गाथा में श्री जयसेनाचार्य कहते है कि - " दूसरे गुरणस्थानसे लेकर बारहवे गुणस्थान तकके जीव 'एकदेशजिन' है, केवली भगवान 'जिनवर' हैं और तीर्थंकर भगवान 'जिनवर वृषभ हैं ।" मिथ्यात्व रागादिको जीतनेसे असयत सम्यग्दृष्टि, श्रावक तथा मुनिको जिन' कहते है, उनमे गणधरादि श्रेष्ठ हैं इसलिये उन्हे 'श्रेष्ठ जिन' अथवा 'जिनवर' कहा जाता है और तीर्थंकरदेव उनसे भी प्रधान श्रेष्ठ हैं इसीलिये उन्हे 'जिनवर वृषभ' कहते हैं । ( देखो द्रव्यसंग्रह गाथा १ टीका ) श्री समयसारजीको ३१ वी गाथामें भी सम्यग्ष्टिको 'जितेन्द्रिय जिन' कहा है । सम्यक्त्वके सन्मुख मिथ्यादृष्टि और अघःकरण, अपूर्वकररण तथा अनिवृत्तिकरणका स्वरूप श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक अ० ७ मे दिया है | ६४

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