Book Title: Moksha Shastra arthat Tattvartha Sutra
Author(s): Ram Manekchand Doshi, Parmeshthidas Jain
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust
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मोक्षशास्त्र चाहिये । परन्तु राग संवर-निर्जराका कारण ही नहीं है। अज्ञानी शुभभावको धर्म मानता है इस वजहसे तथा शुभ करते करते धर्म होगा ऐसा माननेसे और शुभ-अशुभ दोनो दूर करने पर धर्म होगा ऐसा नहीं माननेसे उसका तमाम व्यवहार निरर्थक है, इसीलिये उसे व्यवहाराभासी मिथ्याष्टि कहा जाता है।
भव्य तथा अभव्य जीवोंने ऐसा व्यवहार (जो वास्तवमें व्यवहाराभास है) अनन्तबार किया है और इसके फलसे अनन्तबार नवमें गैवेयक स्वर्ग तक गया है, किन्तु इससे धर्म नहीं हुआ। धर्म तो शुद्ध निश्चयस्वभावके आश्रयसे होनेवाले सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे ही होता है।
श्री समयसारमें कहा है किबदसमिदीगुतीओ सीलतवं जिणवरेहिं पण्णचं ।
कुव्वंतो वि अभन्यो अण्णाणी मिच्छदिट्ठी दु॥
अर्थ-जिनेन्द्र भगवान द्वारा कहे गये व्रत, समिति, गुप्ति, शील, तप करने पर भी अभव्य जीव अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि है ।
टीका-यद्यपि अभव्य जीव भी शील और तपसे परिपूर्ण तीन गुप्ति और पांच समितियोंके प्रति सावधानीसे वर्तता हुआ अहिंसादि पांच महाव्रतरूप व्यवहार चारित्र करता है तथापि वह निश्चारित्र (चारित्र रहित ) अज्ञानी और मिथ्यादृष्टि ही है क्योकि निश्चयचारित्रके कारणरूप ज्ञान श्रद्धानसे शून्य है-रहित है।
__ भावार्थ-अभव्य जीव यद्यपि महाव्रत, समिति, गुप्तिरूप चारित्रका पालन करता है तथापि निश्चय सम्यग्ज्ञान-श्रद्धाके बिना वह चारित्र सम्यक् चारित्र नाम नही पाता; इसलिये वह अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और निश्चारित्र ही है।
नोट-यहाँ अभव्य जीवका उदाहरण दिया है किन्तु यह सिद्धान्त व्यवहारका आश्रयसे हित माननेवाले समस्त जीवोंके एक सरीखा लागू होता है।

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