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अध्याय ८ सूत्र २ अर्थ-[जीवः सकषायत्वात ] जीव कषाय सहित होनेसे [ कर्मणः योग्यपुदगलान् ] कर्मके योग्य पुद्गल परमाणुओंको [प्रादत्ते ] ग्रहण करता है [ स बन्धः ] वह बन्ध है।
टीका १-समस्त लोकमें कार्माण वर्गणीरूप पुद्गल भरे हैं । जव जीव कषाय करता है तब उस कषायका निमित्त पाकर कार्माणवर्गणा स्वयं कर्मरूपसे परिणमती है और जीवके साथ संबंध प्राप्त करती है, इसे बन्ध कहा जाता है। यहाँ जीव और पुद्गलके एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्धको बन्ध कहा है । बन्ध होनेसे जीव और कर्म एक पदार्थ नहीं हो जाते, तथा वे दोनो एकत्रित होकर कोई कार्य नही करते अर्थात् जीव और कर्म ये दोनों मिलकर पुद्गल कर्ममें विकार नहीं करते। कर्मोंका उदय जीवमें विकार नहीं करता, जीव कर्मोंमें विकार नहीं करता, किन्तु दोनों स्वतंत्ररूपसे अपनी अपनी पर्यायके कर्ता हैं । जब जीव अपनी विकारी अवस्था करता है तब पुराने कोके विपाकको 'उदय' कहा जाता है और यदि जीव विकारी अवस्था न करे तो उसके मोहकर्मकी निर्जरा हुई—ऐसा कहा जाता है। परके आश्रय किये बिना जीवमे विकार नही होता, जीव जब पराश्रय द्वारा अपनी अवस्थामें विकार भाव करता है तब उस भावके अनुसार नवीन कर्म बँधते हैं-ऐसा जीव और पुद्गलका निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है, ऐसा यह सूत्र बतलाता है।
२-जीव और पुद्गलका जो निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है वह त्रिकाली द्रव्यमे नही है किन्तु सिर्फ एक समयकी उत्पादरूप पर्यायमें है अर्थात् एक समयकी अवस्था जितना है । जीवमे कभी दो समयका विकार एकत्रित नहीं होता इसीलिये कर्म के साथ इसका सम्बन्ध भी दो समयका
नही ।
प्रश्न-यदि यह सम्बन्ध एक ही समय मात्रका है तो जीवके साथ लम्बी स्थितिवाले कर्मका सम्बन्ध क्यो बताया है ?
उचर-वहाँ भी यह बतलाया है कि सम्बन्ध तो वर्तमान एक समयमात्र ही है; परन्तु जीव यदि विभावके प्रति ही पुरुषार्थ चालू रखेगा