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मोक्षशास्त्र ऐसी व्यवस्था माननेसे सातावेदनीय प्रकृतिको पुलविपाकित्व प्राप्त हो जायगा । ऐसी आशंका नहीं करना; क्योंकि दुःखके उपशमसे उत्पन्न हुये दुःखके अविनाभावी, उपचारसे ही सुख संज्ञाको प्राप्त और जीवसे अभिन्न ऐसे स्वास्थ्यके कणका हेतु होनेसे सूत्र में सातावेदनीय कर्मको जीवविपाकित्व और सुख हेतुत्वका उपदेश दिया गया है। यदि ऐसा कहा जावे कि उपरोक्त व्यवस्थानुसार तो सातावेदनीय कर्मको जीवविपाकित्व और पुद्गलविपाकित्व प्राप्त होता है, तो यह भी कोई दोष नहीं है, क्योकि जीवका अस्तित्व अन्यथा नही बन सकता, इसीसे इसप्रकारके उपदेशके अस्तित्वकी सिद्धि हो जाती है । सुख और दु.खके कारणभूत द्रव्योंका संपादन करनेवाला दूसरा कोई कर्म नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई कर्म मिलता नहीं । (धवला-टीका पुस्तक ६ पृष्ठ ३५-३६)
मोहनीय कर्मके अट्ठाईस भेद बतलाते हैं दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्सास्त्रीपुनपुंसकवेदा अनंतानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यान संज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोमाः॥६॥
अर्थ-[दर्शन चारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्याः] दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, अकपायवेदनीय और कषायवेदनीय इन चार भेदरूप मोहनीयकर्म है और इसके भी अनुक्रमसे [ त्रिद्विनवषोडशभेदाः ] तीन, दो, नव और सोलह भेद है । वे इसप्रकार से हैं--[ सम्यक्त्व मिथ्यात्वतदुभयानि ] सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, और सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय ये दर्शन मोहनीयके तीन भेद हैं; [अकषाय कषायो ] अकषायवेदनीय और कपायवेदनीय ये दो भेद चारित्र मोहनीयके है; [ हास्यरत्यरतिशोक भय जुगुप्सा खी पुनपुसकवेदाः] हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुपवेद और नपुंसकवेद ये अकषायवेदनीयके नव