________________
अध्याय १ सूत्र १४
टीका
इन्द्रिय- आत्मा, ( इन्द्र = प्रात्मा ) परम ऐश्वर्यरूप प्रवर्तमान है, इसप्रकार अनुमान करानेवाला शरीरका चिह्न ।
६१
नो इन्द्रिय- मन; जो सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध मनोवर्गणाके नामसे पहिचाने जाते हैं उनसे बने हुये शरीरका आंतरिक अङ्ग, जो कि अष्टदल कमलके आकार हृदयस्थानमे है ।
मतिज्ञानके होनेमे इन्द्रिय-मन निमित्त होता है, ऐसा जो इस सूत्रमे कहा है, सो वह परद्रव्योके होनेवाले ज्ञानकी अपेक्षासे कहा है, - ऐसा समझना चाहिये । भीतर स्वलक्षमे मन- इन्द्रिय निमित्त नही है । जब जीव उस ( मन और इन्द्रियके अवलम्बन ) से अंशतः पृथक् होता है तब स्वतंत्र तत्त्वका ज्ञान करके उसमें स्थिर हो सकता है ।
इन्द्रियों का धर्म तो यह है कि वे स्पर्श, रस, गंध, वर्णको जाननेमे निमित्त हो, श्रात्मामे वह नही है, इसलिये स्वलक्षमे इन्द्रियाँ निमित्त नही हैं । मनका धर्म यह है कि वह अनेक विकल्पोमे निमित्त हो । वह विकल्प भी यहाँ ( स्वलक्षमे ) नही है । जो ज्ञान इन्द्रियों तथा मनके द्वारा प्रवृत्त होता था वही ज्ञान निजानुभवमे वर्त रहा है; इसप्रकार इस मतिज्ञानमें मन- इन्द्रिय निमित्त नही हैं । यह ज्ञान श्रतीन्द्रिय है । मनका विषय मूर्तिकश्रमूर्तिक पदार्थ हैं, इसलिये मन सम्बन्धी परिणाम स्वरूपके विषयमे एकाग्र होकर अन्य चितवनका निरोध करता है, इसलिये उसे ( उपचारसे) मनके द्वारा हुआ कहा जाता है । ऐसा अनुभव चतुर्थंगुरणस्थानसे ही होता है ।
इस सूत्र बतलाया गया है कि मतिज्ञानमें इन्द्रिय-मन निमित्त हैं; यह नही कहा है कि - मतिज्ञानमे ज्ञेय अर्थ (वस्तु) और श्रालोक (प्रकाश) निमित्त हैं, क्योकि अर्थ और आलोक मतिज्ञानमें निमित्त नही है । उन्हे निमित्त मानना भूल है । यह विषय विशेष समझने योग्य है, इसलिये इसे प्रमेयरत्नमाला हिन्दी ( पृष्ठ ५० से ५५ ) यहाँ संक्षेपमे दे रहे हैं