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अध्याय ६ सूत्र २५-२६-२७
टीका एकेन्द्रियसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत तक सभी तिर्यंच, नारकी तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य इन सबके नीच गोत्र है। देवोंके उच्च-गोत्र है गर्भज मनुष्योंके दोनों प्रकारके गोत्रकर्म होते है ॥ २५ ॥
___ उच्च गोत्रकर्मके आस्रवके कारण तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्य ॥२६॥
अर्थ-[ तद्विपर्ययः ] उस नीच गोत्रकर्मके आसूवके कारणोंसे विपरीत अर्थात् परप्रशंसा, प्रात्मनिंदा इत्यादि [ ] तथा नीचैर्वृत्त्यनत्सेको ] नम्र वृत्ति होना तथा मद्का अभाव-सो [ उत्तरस्य ] दूसरे गोत्रकर्मके अर्थात् उच्च गोत्रकर्म के आस्रवके कारण हैं।
टीका
यहाँ नम्रवृत्ति होना और मदका अभाव होना -सो अशुभभावका अभाव समझना; उसमें जो शुभभाव है सो उच्च गोत्रकर्मके आस्वका कारण है। 'अनुत्सेक' का अर्थ है अभिमानका न होना ॥ २६ ॥
यहाँ तक ‘सात कर्मों के आसूवके कारणोंका वर्णन किया। अब अंतिम अंतरायकर्मके पासूवके कारण बताकर यह अध्याय पूर्ण करते हैं।
अंतराय कर्मके आस्रवके कारण विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७॥ 'मयं-[विघ्नकरणम् ] दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा वीर्यमें विघ्न करना सो [ अंतरायस्य ] अंतराय कर्मके पासूवके कारण हैं।
टीका
इस अध्यायके १० से २७ तकके सूत्रोंमें कर्मके पासवका जो कथन किया है वह अनुभाग सबंधो नियम बतलाता है। जैसे किसी पुरुषके दान देनेके भाव, किसी ने अंतराय किया तो उस समय उसके जिन कर्मों का भासूव हुआ, यद्यपि वह सातों कर्मोमें पहुँच गया तथापि उस समय दाना