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मोक्षशास्त्र
और संयमरूप परिणामोंमें अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशमके कारणभूत परिणाम बहुत थोडे होते है [ श्री जयधवला पृष्ठ १७ ] गुरणप्रत्यय सुअवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि जीवोंके ही हो सकता है, किन्तु वह सभी सम्यग्दृष्टि जीवोंके नही होता |
सूत्र २१-२२ का सिद्धान्त
यह मानना ठीक नहीं है कि "जिन जीवोंको अवधिज्ञान हुआ हो वे ही जीव अवधिज्ञानका उपयोग लगाकर दर्शन मोहकर्मके रजकरणोंकी अवस्थाको देखकर उस परसे यह यथार्थतया जान सकते हैं कि हमें सम्यदर्शन हुआ है" क्योकि सभी सम्यग्दृष्टि जोवोंको अवधिज्ञान नही होता, किन्तु सम्यग्दृष्टि जीवोमेसे बहुत थोडेसे जीवोंको अवधिज्ञान होता है । अपनेको 'सम्यग्दर्शन हुआ है' यदि यह अवधिज्ञानके विना निश्चय न हो सकता होता तो जिन जीवोंके अवधिज्ञान नही होता उन्हे सदा तत्सम्बन्धी शंका- संशय बना ही रहेगा, किन्तु निःशंकित्व सम्यग्दर्शनका पहिला ही प्राचार है; इसलिये जिन जीवोंको सम्यग्दर्शन सम्बन्धी शंका बनी रहती है वे जीव वास्तवमे सम्यग्दृष्टि नही हो सकते किन्तु मिथ्यादृष्टि होते हैं । इसलिये अवधिज्ञानका, मन:पर्ययज्ञानका तथा उनके भेदोंका स्वरूप जानकर, भेदोकी ओरके रागको दूर करके अभेद ज्ञानस्वरूप अपने स्वभाव की ओर उन्मुख होना चाहिये ॥ २२ ॥
मन:पर्ययज्ञानके भेद
ऋजुविपुलमती मन:पर्ययः ॥ २३ ॥
अर्थ - [ मन:पर्ययः ] मन:पर्ययज्ञान [ ऋजुमतिविपुलमतिः ] ऋजुमति और विपुलमति दो प्रकारका है ।
टीका
(१) मन:पर्ययज्ञानकी व्याख्या नवमें सूत्रकी टीकामें की गई है । दूसरेके मनोगत मूर्तिक द्रव्योंको मनके साथ जो प्रत्यक्ष जानता है सो मन:पर्ययज्ञान है ।