________________
अध्याय २ सूत्र १०
२४५ ८. क्षेत्रपरिवर्तनका स्वरूप जीवकी विकारी अवस्थामे आकाशके क्षेत्रके साथ होनेवाले संबंध को क्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके आठ मध्यप्रदेश बनाकर कोई जीव सूक्ष्मनिगोदमे अपर्याप्त सर्व जघन्य शरीर वाला हुआ और क्षुद्रभव ( श्वासके अठारहवें भागकी स्थिति ) को प्राप्त हुआ, तत्पश्चात् उपरोक्त आठ प्रदेशोंसे लगे हुए एक एक अधिक प्रदेशको स्पर्श करके समस्त लोकको जब अपने जन्मक्षेत्रके रूपमें प्राप्त करता है तव एक क्षेत्र परिवर्तन पूर्ण हुआ कहलाता है । ( बीच में क्षेत्रका क्रम छोड़कर अन्यत्र जहाँ २ जन्म लिया उन क्षेत्रोंको गणनामें नहीं लिया जाता ।)
स्पष्टीकरण-मेस्पर्वतके नीचेसे प्रारंभ करके क्रमशः एक २ प्रदेश आगे बढते हुये संपूर्ण लोकमे जन्म धारण करनेमे एक जीवको जितना समय लगे उतने समयमें एक क्षेत्रपरिवर्तन पूर्ण हुआ कहलाता है।
९. कालपरिवर्तनका स्वरूप __ एक जीवने एक अवसपिणीके पहिले समयमे जन्म लिया, तत्पश्चात् अन्य अवसर्पिणीके दूसरे समयमें जन्म लिया, पश्चात् अन्य अवसपिणीके तीसरे समयमे जन्म लिया; इसप्रकार एक २ समय आगे बढते हुए नई अवसर्पिणीके अंतिम समयमे जन्म लिया, तथा उसीप्रकार उत्सपिणी कालमें उसी भांति जन्म लिया; और तत्पश्चात् ऊपरकी भांति ही अवसर्पिणी और उत्सपिरणीके प्रत्येक समयमें क्रमशः मरण किया । इसप्रकार भ्रमण करते हुए जो काल लगता है उसे कालपरिवर्तन कहते हैं। ( इस कालक्रमसे रहित वीचमे जिन २ समयोंमे जन्म-मरण किया जाता है वे समय गणनामें नही आते।) अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालका स्वरूप अध्याय ३ सूत्र २७ मे कहा है।
१०. भवपरिवर्तनका स्वरूप नरकमे सर्वजघन्य प्रायु दश हजार वर्षकी है। उतनी आयुवाला एक जीव पहिले नरकके पहिले पटलमे जन्मा, पश्चात् किसी अन्य समय में उतनी ही आयु प्राप्त करके उसी पटलमें जन्मा; ( बीचमे अन्य गतियोमे