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पध्याय ५ सूत्र ३०-३१-३२
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समय, परके द्वारा नहीं की जा सकती, वस्तु सदा स्वतः परिगमनशील होनेसे अपनी पर्याय यानी अपने हरएक गुणके वर्तमान ( अवस्था विशेष ) का वह स्वयं ही सृष्टा - रचयिता है ॥ ३० ॥
अव नित्यका लक्षण कहते हैं तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥
अर्थ-- [ तदभावाव्ययं । तद्भावसे जो अध्यय है-नाश नहीं होना सो [ नित्यम् ] नित्य है ।
टीका
( १ ) जो पहले समयमें हो वही दूसरे समयमें हो उसे तद्भाव कहते हैं; वह नित्य होता है - अव्यय = अविनाशी होता है ।
( २ ) इस अध्यायके चौथे सूत्रमे कहा है कि द्रव्यका स्वरूप नित्य है । उसकी व्याख्या इस सूत्रमें दो गई है ।
( ३ ) प्रत्यभिज्ञानके हेतु को तदभाव कहते हैं । जैसे कि द्रव्यको पहले समय में देखनेके बाद दूसरे आदि समयोमें देखनेसे "यह वही है जिसे मैंने पहले देखा था " ऐसा जो जोड़रूपज्ञान है वह द्रव्यका द्रव्यत्व बतलाता है, परन्तु यह नित्यता कथंचित् है क्योकि यह सामान्य स्वरूप की अपेक्षासे होती है । पर्यायकी अपेक्षासे द्रव्य अनित्य है । इसतरह जगत मे समस्त द्रव्य नित्यानित्यरूप हैं । यह प्रमाण दृष्ट है ।
( ४ ) आत्मामें सर्वथा नित्यता मानने से मनुष्य, नरकादिकरूप संसार तथा संसारसे अत्यन्त छूटनेरूप मोक्ष नही बन सकता । सर्वथा नित्यता माननेसे संसार स्वरूपका वर्णन और मोक्ष - उपायका कथन करने में 'विरोधता आती है, इसलिये सर्वथा नित्य मानना न्याय संगत नही है ।। ३१ ।।
एक वस्तुमें दो विरुद्ध धर्म सिद्ध करने की रौति बतलाते हैं। अर्पितानर्पित सिद्धेः ॥ ३२ ॥
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