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मोक्षशास्त्र
उस अविकारी भावके प्रगट होने और विकारीभावके व्ययका लाभ त्रिकाल मौजूद रहनेवाले ऐसे ध्रुव द्रव्यके प्राप्त होता है ऐसा धौव्य शब्द अन्तमें देकर बतलाया है |
(८) प्रश्न- - "युक्त" शब्द एक पदार्थसे दूसरे पदार्थका पृथकत्व बतलाता है - जैसे----- --दण्ड युक्त दंडी । ऐसा होनेसे उत्पाद व्यय और प्रोव्य का द्रव्यसे भिन्न होना समझा जाता है अर्थात् द्रव्यके उत्पाद व्यय और श्रीव्यका द्रव्यमें अभावका प्रसंग आता है उसका क्या स्पष्टीकरण है ?
उत्तर- 'युक्त' शब्द जहाँ अभेदकी अपेक्षा हो वहाँ भी प्रयोग किया जाता है जैसे—सार युक्त स्तंभ । यहाँ युक्तं शब्द अभेदनयसे कहा है । यहाँ युक्तं शब्द एकमेकतारूप अर्थ में समझना ।
(६) सत् स्वतंत्र और स्व सहायक है अतः उत्पाद और व्यय भी प्रत्येक द्रव्यमें स्वतंत्ररूपसे होते है । श्री कुन्दकुन्दाचार्यने प्र० सार गा० १०७ में पर्यायको भी सत्पना कहा है- “ सद्द्रव्यं सच्च गुरणः सच्चेव च पर्याय इति विस्तारः ।"
प्रश्न – जीव में होनेवाली विकारी पर्याय पराधीन कही जाती है इसका क्या कारण है ?
उचर- - पर्याय भी एक समय स्थायी अनित्य सत् होनेसे विकारी पर्याय भी जीव जब स्वतंत्ररूपसे अपने पुरुषार्थके द्वारा करे तब होती है । यदि वैसा न माना जाय तो द्रव्यका लक्षण 'सत्' सिद्ध न हो श्रौर इसलिए द्रव्यका नाश हो जाय । जीव स्वयं स्वतंत्र रूप से अपने भावमें परके आधीन होता है इसलिए विकारी पर्यायको पराधीन कहा जाता है । किंतु ऐसा मानना न्याय संगत नही है कि 'परद्रव्य जीवको आधीन करता है इसलिये विकारी पर्याय होती है ।"
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प्रश्न – क्या यह मान्यता ठीक है कि "जब द्रव्य कर्मका वल होता है तब कर्म जीवक आधीन कर लेते हैं क्योकि कर्म में महान शक्ति है ?"
उत्तर--नहीं ऐसा नही है । प्रत्येक द्रव्यका प्रभाव और शक्ति