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अध्याय १ परिशिष्ट १
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दोष है, और वही दीर्घसंसारकी स्थापना करता है, इसलिये यह समझना चाहिए कि उसका नाश किया और संसारका किनारा आगया । कितु साथ ही यह भी नही भूलना चाहिए कि मोह तो दोनों हैं । उनमें से एक ( दर्शनमोह ) अमर्यादित है और दूसरा ( चारित्रमोह ) मर्यादित है । किन्तु दोनो ससारके ही कारण हैं ।
यदि संसारका संक्षेपमें स्वरूप कहा जाय तो वह दुःखमय है, इसलिये आनुषंगिक रूपसे दूसरे कर्म भी भले ही दुखके निमित्त कारण हों किंतु मुख्य निमित्तकारण तो मोहनीयकर्म ही है । जब कि सर्वदुःखका कारण ( निमित्तरूपसे ) मोहनीय कर्ममात्र है तो मोहके नाशको सुख कहना चाहिए । जो ग्रंथकार मोहके नाशको सुख गुरणकी प्राप्ति मानते है उनका मानना मोहके संयुक्त कार्यकी अपेक्षासे ठीक है । वैसा मानना अभेद व्यापकसेि है इसलिये जो सुखको अनन्त चतुष्टयमें गर्भित करते हैं वे चारित्र तथा सम्यक्त्वको भिन्न नही गिनते, क्योकि सम्यक्त्व तथा चारित्रके सामुदायिक स्वरूपको सुख कहा जा सकता है ।
चारित्र और सम्यक्त्व दोनोंका समावेश सुखगुणमें अथवा स्वरूपलाभमें ही होता है, इसलिये चारित्र और सम्यक्त्वका अर्थ सुख भी हो सकता है । जहाँ सुख और वीर्यगुरगका उल्लेख अनन्त चतुष्टयमे किया गया है वहाँ उन गुरणोकी मुख्यता मानकर कहा है, और दूसरोंको गौण मानकर नहीं कहा है, तथापि उन्हे उनमें संगृहीत हुआ समझ लेना चाहिये, क्योकि वे दोनों सुखगुरणके विशेषाकार है । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मोहनीय कर्म किस गुरण के घातमे निमित्त है । और इससे वेदनीयकी अघातकता भी सिद्ध हो जाती है, क्योकि वेदनीय किसीके घातनेमे निमित्त नही है; मात्र घात हुए स्वरूपका जीव जब अनुभव करता है तब निमित्तरूप होता है । [ इस स्पष्टीकरण मे तीसरी और चौथी शंकाका समाधान हो जाता है । ]
[ यह बात विशेष ध्यानमे रखनी चाहिए कि जीवमें होनेवाले विकारभावोंको जीव जब स्वयं करता है तब कर्मका उदय उपस्थितरूपमें निमित्त होता है, किंतु उस कर्मके रजकरणोंने जीवका कुछ भी किया है या