Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra
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१८ संस्थान
समचतुरस्रादि १९ अवगाहना
जघन्य, उत्कृष्टादि २० मूलप्रकृति
ज्ञानावरणादि २१ उत्तरप्रकृति
१२० मतिज्ञानावरणादि २२ समुद्धात
वेदनादि २३ कर्मबन्ध के मूल हेतु ४ मिथ्यात्वादि २४ कर्मबन्ध के हेतु उत्तरभेद ५७ आभिग्रहिक मिथ्यात्वादि २५ कषाय
४ क्रोधादि (१) जीवस्थान : प्रथम जीव का विचार करें। जो चार प्राणों (इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास) से जीता है उसे जीव कहते हैं। सत्त्व, भूत, प्राणी, आत्मा आदि भी जीव के एकार्थवाची- पर्यायवाची दूसरे नाम है। लेकिन इन सब का सारांश यही है कि जिसमें ज्ञान-दर्शनात्मक उपयोग है वह जीव है। जीवके १४ प्रकार ये हैं-सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरीन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय। इन सातों के पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चौदह भेद होते हैं। पृथ्वीकाय आदि जिन जीवों को सूक्ष्म नाम कर्म का उदय होता है वे सूक्ष्म कहलाते हैं। ये सूक्ष्म जीव आखों से दिखाई नहीं देते। जो जीव हमें दृष्टिगोचर हो सकते हैं वे बादर कहलाते है। बादर एकेन्द्रिय जीव तो संसार के किसी किसी भाग में ही होते है लेकिन सूक्ष्म जीवों से तो यह समस्त लोक काजल की डिबियां में भरे हुए सुरमे की तरह खचाखच भरा हुआ है।
एकेन्द्रिय जीवों को सिर्फ एक स्पर्शनेन्द्रिय होती है। एकेन्द्रिय जीवों के पांच प्रकार है- पृथ्वी, अप्, तेज, वायु तथा वनस्पति। इनके सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार भेद है। एकेन्द्रिय जीव अपने हिताहित के लिए प्रवृत्ति- निवृत्ति के निमित्त हलन-चलन करने में समर्थ नहीं है अतः उन्हें स्थावर कहते हैं। ये जीव असंज्ञी (मनरहित) होते हैं। द्वीन्द्रिय जीवों को स्पर्शन और रसन यह दो इन्द्रियाँ होती हैं। त्रीन्द्रिय जीवों को स्पर्शन, रसन, और घ्राण यह तीन इन्द्रियाँ होती हैं। चतुरिन्द्रिय जीवों को स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँचों इन्द्रियाँ होती है। देव, मनुष्य, नारक एवं पशु, पक्षी आदि गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय हैं , तथा समनस्क है। शेष अमनस्क है। तिर्यंच पंचेन्द्रिय के जलचर, स्थलचर और खेचर आदि भी भेद पाये जाते हैं। इस प्रकार ध्याता जीव के भेद-प्रभेद का चिन्तन कर जीवों के १४ गुणस्थानों का विचार करें।
(२) गुणस्थान : गुणों(आत्मशक्तियों) के स्थानों अर्थात् क्रमिक विकास की अवस्थाओं को गुणस्थान कहते हैं। इसके १४ प्रकार हैं
१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान : मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के उदय से जिस अवस्था में जीव की दृष्टि (श्रद्धा या ज्ञान) मिथ्या(उल्टी) होती है उसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। जैसे धतूरे के बीज को खानेवाले अथवा पीलिया रोगवाले को सफेद चीज भी पीली दिखाई देती है अथवा पित्त के प्रकोपवाले रोगी को मिसरी भी कडवी लगती है। इसी प्रकार मिथ्यात्वी जीव कुदेव में देवबुद्धि, कुगुरु में गुरुबुद्धि और कुधर्म में धर्मबुद्धि रखता है। जीव की इस अवस्था को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं।