Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 16
________________ 15 स्थान शुद्धि : सर्वप्रथम तो जहाँ ध्यान करना हो वह स्थान पवित्र वातावरण से शुद्ध होना चाहिए। जहाँ बालक कोलाहल करते रहते हो; स्त्री, पुरुष, पशु आदि से युक्त हो; मक्खी, मच्छर, सर्प आदि से युक्त हो वह स्थान ध्यान के लिए अयोग्य माना गया है। ध्यान के लिए एकान्त-शान्त स्थान होना चाहिए। समय : यद्यपि कोई समय निश्चित नहीं है फिर भी ध्यान के लिए प्रभात का समय सुन्दर माना गया है। यदि प्रभातकाल में न हो सके तो सायंकाल में या मध्यरात्रि के समय शान्त वातावरण में ध्यान करने से चित्त की प्रसन्नता बढ़ती है। आसन : योग के अंगों में से आसन तीसरा अंग माना गया है। दृढ आसन का मन पर बडा प्रभाव होता है। आसन की अस्थिरता से मन भी अस्थिर रहता है। अतः ध्यान के लिए सिद्धासन, पद्मासन या पर्यंकासन सब से श्रेष्ठ माना गया है। पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुखकर के काष्ठ पट्टिका या शुभ पवित्र आसन पर पद्मासन या पर्यंकासन से ध्यान करना चाहिए। ध्यान का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। प्राचीन आचार्यों ने ध्यान के अनेक प्रकार हमारे सामने रखे है जिनके द्वारा हम अपने चंचल मन को वश में कर सकतें हैं। विचारों के एकीकरण तथा पवित्रीकरण का सर्वश्रेष्ठ साथ ही सरल साधन है धर्मतत्त्व का चिन्तन। तत्त्वों के चिन्तन से मन की स्थिरता, चित्त की शुद्धि एवं ज्ञान की वृद्धि होती है। ग्रन्थकर्ता ध्याता को क्या चिन्तन करना चाहिए उसे विस्तृत रूप से बतातें हैं। प्रथम ध्याता तत्त्व का चिन्तन करें। तत्त्व की परिभाषा प्रश्न होता है, जिसे हम 'तत्त्व' शब्द से पुकारते हैं वह तत्त्व क्या है? 'तस्य भावस्तत्त्वम्। 'तत्' शब्द सर्वनाम पद है और सर्वनाम सामान्य अर्थ का बोधक है। अतः इसके अनुसार वस्तु को तत्त्व कहा जाता है। अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप में विद्यमान है उसका उस रूप में होना यही तत्त्व शब्द का अर्थ है। शब्द शास्त्र के अनुसार प्रत्येक सद्भूत वस्तु को तत्त्व शब्द से सम्बोधित किया जाता है। जैनाचार्यों ने शब्द शास्त्र की अपेक्षा से तत्त्व शब्द की अधिक व्याख्या करते हुए कहा है तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मानं वा यतः स्वतः सिद्धम् । तत्त्व का लक्षण सत् है अथवा सत् ही तत्त्व है। इसलिए वह स्वभाव से सिद्ध है। किसी भाव यानी सत् का कभी नाश नहीं होता है और असत् की उत्पत्ति नहीं होती है। इसीलिए आकाशकुसुम की तरह जो सर्वथा असत् है वह तत्त्व नहीं हो सकता। स्वयं भगवतीसूत्रकार कहते है-'सद्दव्वं वा'। अर्थात् द्रव्य(तत्त्व) का लक्षण सत् है। यह सत् स्वतः सिद्ध है और नवीन अवस्थाओं की उत्पत्ति एवं पुरानी अवस्थाओं का विनाश होते रहने पर भी अपने स्वभाव का कभी परित्याग नहीं करते है। वाचक मुख्य उमास्वाति ने सत् की व्याख्या करते हुए कहा है-उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्। यानी जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त अर्थात् तदात्मक है, उसे सत् कहते हैं। भगवान महावीर की वाणी में सत् के स्वरूप की व्याख्या इस प्रकार की है १ संदर्भ-गाथा - ३ वृत्ति । २ संदर्भ-गाथा - २ । ३ तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति ४ तत्त्वार्थसूत्र - ५.२९

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