Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra
View full book text
________________
33
उत्तर उत्तर पुरुष के परिणाम शुभ, शुभतर और शुभतम पाये जाते हैं। उत्तर उत्तर पुरुष के परिणामों में संक्लेश की न्यूनता और मृदुता की अधिकता पाई जाती है।
संज्ञि द्विक में अपर्याप्त तथा पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय में छहों लेश्याएँ होती है। अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय में कृष्ण आदि पहली चार लेश्याएँ पाई जाती है। शेष ग्यारह जीव स्थानों में- अपर्याप्त तथा पर्याप्त सूक्ष्मएकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय में और अपर्याप्त-पर्याप्त असंज्ञि पंचेन्द्रियों में कृष्ण, नील और कापोत ये तीन लेश्याएँ होती है। अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय में तेजोलेश्या भी पाई जाती है। प्रथम और द्वितीय नरक में कापोत लेश्या, तृतीय नरक में कपोत और नील, चौथी नरक में नील, पांचवी में कृष्ण और नील, छठी नरक में कृष्ण, सातवी में महाकृष्ण लेश्या पाई जाती है। भवनपति और वाणव्यंतर में कृष्ण, नील, कापोत और तेजो लेश्या। ज्योतिषी एवं प्रथम द्वितीय देवलोक में पद्म लेश्या;तीसरे,चौथे और पांचवें देवलोक में पद्म लेश्या; छठे देवलोक से नौ ग्रेवेयक तक में एक शुक्ल लेश्या एवं पाँच अनुत्तर में परमशुक्ल लेश्या होती है।
तत्पश्चात् दृष्टियों पर विचार करें।
(७) दृष्टि-३ दृष्टियाँ तीन हैं- सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्र दृष्टि। सात नारकी के नैरयिक, दस भवनपति, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक इन सोलह दण्डक में तीनों दृष्टियाँ पाई जाती है। पांच स्थावर मिथ्यादष्टि होते हैं। तीन विकलेन्द्रिय और नव ग्रैवेयक सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादष्टि होते हैं। पांच अनुत्तर विमान और सिद्ध भगवान सम्यग्दृष्टि होते हैं।
(८) पर्याप्तियाँ- ६ जिस कर्म के उदय से जीव अपनी अपनी पर्याप्तियों से युक्त होते हैं वह पर्याप्ति नाम कर्म है। जीव की उस शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं जिसके द्वारा पुद्गलों को ग्रहण करने तथा उनको आहार, शरीर आदि के रूप में बदल देने का कार्य होता है, अर्थात् पुद्गलों के उपचय से जीव की पुद्गलों के ग्रहण करने की तथा परिणमन की शक्ति को पर्याप्ति कहते है। विषय भेद से पर्याप्ति के छ भेद है- आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति, उच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनःपर्याप्ति।
मृत्यु के बाद जीव, उत्पत्ति-स्थान में पहुँचकर कार्मण-शरीर के द्वारा जिन पुद्गलों को प्रथम समय में ग्रहण करता है उनके छह विभाग होते हैं और उनके द्वारा एक साथ, छहों पर्याप्तियों का बनना शुरु हो जाता है परन्तु उनकी पूर्णता क्रमशः होती है। जो औदारिक शरीरधारी जीव हैं उनकी आहार-पर्याप्ति एक समय में पूर्ण होती है, और अन्य पाँच पर्याप्तियाँ अन्तर्मुहूर्त में क्रमशः पूर्ण होती है । वैक्रिय शरीरधारी जीवों की शरीर-पर्याप्ति के पूर्ण होने में अन्तर्मुहूर्त समय लगता है और अन्य पांच पर्याप्तियों के पूर्ण होने में एक एक समय लगता है।
१) जिस शक्ति के द्वारा जीव बाह्य आहार को ग्रहण कर उसे खल और रस के रूप में बदल देता है उसे आहार पर्याप्ति कहते हैं।
२) जिस शक्ति द्वारा जीव रस के रूप में बदल दिये हुए आहार को सात धातु के रूप में बदल देता
१ २
संदर्भ गाथा - २७ संदर्भ गाथा - २८