Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra
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मन:स्थिरीकरणप्रकरणम्
कोस ऊदेही प्रमुखनउ। चउरिंद्रियनउं सइर धुरि ऊपजइतां अंगुलनउं असंख्यातमउ भाग उत्कृष्टउं १ जोअण भमरादिकनउं। असंज्ञिया पंचेंद्रिय अनइ संज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रियनउं सइर जघन्य धुरि ऊपजतां अंगुलनउ असंख्यातमउ भाग, उत्कृष्टउं सहस्र जोअण मत्स्यादिकनउं। ए तिर्यंच पंचेंद्रिय संज्ञियामांहि केतलाहुइं वैक्रिय लब्धि हुइ; ते वैक्रिय सइर धुरि करतां आंगुलनउ असंख्यातमउ भाग, उत्कृष्टउं नवसय जोअण हुइ। मनुष्यनउं जघन्य सरीर धुरि ऊपजतां अंगलनउ असंख्यातमउ भाग, उत्कृष्टउं ३ कोस युगलीयादिकनउं। मनुष्यनउं वैक्रिय सइर धुरि ऊपजतां अंगुलनउ असंख्यातमउ भाग हुइ, उत्कृष्टउं लाख जोअण वैक्रिय सइर हुइ।
नारकीहुई मूलिवैक्रिय शरीर ऊपजतां अंगुलनउ असंख्यातमउ भाग, उत्तरवैक्रिय अंगुलनउ संख्यातमउ भाग पछइ पहिली पृथ्वी पहिलइ पाथडि २ हाथ। आगिले बारे पाथडे साढ छप्पन्न अंगुल वधारतां जाईइ; तेरमइ पाथडि ७ धनुष ३ हाथ ६ अंगुल एवडउं शरीर हुइ। बीजीइं पृथ्वीइं उत्कृष्टउं सइर बिमणउ १५ धनुष २ हाथ १२
आंगुल। त्रीजीई तेहपाहिं बिमणउं ३१ धनुष १ हाथ। इम बिमणउं करतां सातमी नरक पृथ्वीइं पांचसई धनुष जाणिवा। जिहां जेवडउ मूलगउ सइर तेणइं नरगि तेहपाहिइं बिमणउं उत्तरवैक्रिय जाणिवउं। १२ देवलोकि देवतानइ धुरि ऊपजतां मूलउत्तरवैक्रिय सरीर अंगुलनउ असंख्यातमउ भाग, उत्तरवैक्रिय धुरि अंगुलनउ संख्यातमउ भाग। भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी अनइ पहिले बिहु देवलोके मूल वैक्रियसरीर ७ हाथ ऊपले देवलोके मउडइ मउडइ खूटइतउ जाइ। चउथइ देवलोकि छेहिलइ बारमइ पाथडि ६ हाथ। छठइवइ देवलोकि छेहलई पांचस(म)इं पाथडी ५ हाथ, आठमइ देवलोकि छेल्लिलइ चउथइ पाथडि ४ हाथ, बारमइ देवलोकि छेहिलइ चउथइ पाथडि ३ हाथ। नवमई ग्रैवेयकि बि हाथ। सर्वार्थसिद्धि विमानि १ हाथ शरीरप्रमाण हुइ। उत्तरवैक्रिय देवनउं उत्कृष्टउं लाख १,००,000 जोअण प्रमाण हई। नव ग्रैवेयके अनइ अनुत्तर विमानि उत्तरवैक्रिय शरीर हइजि नही। शरीर प्रमाणविचारः।
अथ समुद्धातविचारः। समुद्धात सात कहीइं। वेदना समुद्धात १ कषाय समुद्धात २ मरण समुद्धात ३ वैक्रिय समुद्धात ४ तैजस समुद्धात ५ आहारक समुद्धात ६ केवलि समुद्धात ७। ए सात समुद्धात। जिवारई जीवहुई गडगूंबडज्वरादिक अथवा शस्त्रादिघातादिकनी गाढी वेदना हुइ तिवारइं जीव प्रदेश बाहिरि काढइ। पेटमुख-नासिका-कानादिकनां विवर जीव नियप्रदेशि करी भरइ, जेवडउं सयर छइ तेवडउ आकाश क्षेत्र बाहिरि पुण आपणे प्रदेश व्यापी करी अंतर्मुहूर्त रहई। घणी असातवेदनीय कर्म पुद्गल क्षिपइ। पछइ वली सयर(री)जिमांहि आवइ ए वेदना समुद्धात कहीयइ। इम जेति वारइं जीव रोषादिकषायनइ वसि तीव्र उदयइ वर्तइ तेती वारई मुख-नासिका-कर्णादिकना विवर पूरि स्वशरीरप्रमाण बाहरि आकाशक्षेत्र व्यापइ कषाय कर्मना पुद्गल वेइ वली अंतर्मुहूर्त पूठि सयरजिमांहि आवइ ए कषाय समुद्धात कहीअइ २। मरणनइ समइ अंतर्मुहूर्त थाकतइ केतलाइ जीव मरण समुद्धात करई। मरण समुद्धात करतउ आपणा जीवप्रदेश बाहिरि काढइ। जघन्यतउ अगुलनउ असख्यातमउ भाग उत्कृष्टउ असख्याता जोअण। जीणइ थानकि आवतइ भवि ऊपजसि तहा जीवप्रदेश घालइ। ऋजु गति करइतउ एकजि समइ घालई विग्रहगति करइतउ उत्कृष्टत पांचमइ समइ घालइ। ईणइजि घणा घणा आऊखाना पुद्गल वेईनइ क्षिपइ। ए मरण समुद्धात कहीयइ]।
एहू समुद्धात अंतर्मुहूर्त प्रमाण हुइ। वैक्रिय लब्धिनउइ धणी जेतीवारइ वैक्रियशरीर करइ तेतीवारई आपण जेवडउ पुद(थु)लपणि अनइ लाम्बपणि जघन्यतउ अंगुल Hउ] असंख्यातमउ भाग, उत्कृष्टउतउ असंख्यातां जोअण प्रमाण जीवप्रदेश दण्ड सयर बाहरि काढीइ। वैक्रिय योग्य पुद्गल लेई करी वैक्रिय शरीर करइ तिवारई वैक्रिय समुद्धात हुइ। तिहाई पोतानां वैक्रिय शरीरनामकर्मना पुद्गल घणा वेई क्षिपइ। ए वैक्रिय समुद्धात कहीयइ
तेजोलेश्या लब्धिनउ धणी को महात्मादिक कहइं ऊपरि कुपिउ हूं तउ पिहुलपणी = जाडपणि आपणा
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