Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra
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मन:स्थिरीकरणप्रकरणम्
भागि अथवा नवमइ भागि अथवा सत्तावीसमइ भागि ३ अथवा छेहिलइ अंतमुहूर्ति निश्चय बांधइ। आऊखं बांधतां अंतर्मुहूर्त लागइ। पछइ जे आऊखु पोतांजि थिकु रहइ, उदय नावइ जां लगइ ते जीव न मरइ। मूआ पूठिई ऋजुगतिइं पहिलइजि समइ वक्रगतिं बीजइ समइ ते आऊखं उदय आवइ। जेतलु काल ते आऊखउं उदय न आवइ ते आबाधाकाल कहीइ।
ते जघन्य केतलउ हुइ अनइ उत्कृष्टउं केतलउं हुइ? ए वात तेरे स्थानके विचारीइ छइ। पृथ्वीकाय १ अप्काय २ तेअ(उ)काय ३ वायुकाय ४ वनस्पतिकाय ५ बेंद्रिय ६ चेंद्रिय ७ चउरिद्रिय ८ असंज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रिय १० मनुष्य ए इग्यारए स्थानकि जउ आऊखुं परलोगउं छेहडइ बांधइ तउ तेहनु आबाधाकाल जघन्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण हुइ। उत्कृष्टउं बावीस सहस्रवर्ष प्रमाण आऊखानइउ धणी पृथ्वीकायनइ आपणा भवनइ त्रीजइ भागि परलोकनउं आऊखउं बांधइ तउ तेह नउ उत्कृष्टउ आबाधाकाल सातसहस त्रिणिसई तेत्रीसां वरस अनइ च्यारिमास एतलुं हुइ। अप्कायमांहि उत्कृष्टउ अबाधाकाल बि सहस्र त्रिणिसइ तेत्रीसां वर्ष अनइ ४ मास त्रेवीससई त्रेत्रीसां एतलुं हुइ। आंकथउ तेतल २३३३,१/२ एतलुं हुइ। तेउकायमांहि उत्कृष्टउ आबाधाकाल एक दिहाडउ। वायुकायमांहि एक सहस्र वरस उत्कृष्टउ आबाधाकाल हुइ। वनस्पतिमांहि अंकतस्तु ३३३३ एतलुं हुइ। बेंद्रियमांहि उत्कृष्टउ आबाधाकाल च्यारि वरस रहइ। तेंद्रिय मांहि उत्कृष्टउ आबाधाकाल सोल दिवस अनइ एकवीस घडी अनइ घडीनु त्रीजउ भाग। चउरिंद्रियमांहि उत्कृष्टउ आबाधाकाल बिमास हुइ। असंज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रियमांहि उत्कृष्टउ आबाधाकाल हुइ तेत्रीस लाख तेत्रीस सहस्र त्रिन्निसई तेत्रीसां एतला पूर्व अनइ तेवीस कोडि लाख बावन कोडि सहस्र एतलां वरस ऊपरि जाणिवा। आंकथउ ३३,३३,३३३ एतला पूर्व २३,५२,00,000,000,00 एतला वरस हुई। संज्ञिया तिर्यंच पंचेंद्रियहुई अनइ मनुष्यमांहि तिमजि पूर्वकोडि नउ त्रीजउ भाग उत्कृष्टउ आबाधाकाल हुई। अनइ युगो(ग)लियां तिर्यंच मनुहुई तथा नारकी देव हुई आऊखानउ आबाधाकाल छेहिला छमास आऊखानु आबाधाकाल जाणिवउ। इम त(ते)रे स्थानके आऊखानउ आबाधाकाल विचारिउ।
अथ आठ कर्मबंध तेरे स्थानके विचारीइ छइ। घटपटादिक विशेषरूप वस्तुनउ जाणिवउं जे आवरइ = आच्छादइ ते ज्ञानावरणीय कर्म। आँखिहुई आडइ जिम वस्तु हुइ तेह सरीखु जीवहुई ए कर्म १। सामान्य वस्तुमात्र नउं जाणिवू दर्शन कहीइ। तेहनु आवरण ते दर्शनावरणीय कहीइं। रायनुं दर्शन करिवा वांछता पुरुषहुइ जिम प्रतीहार अंत्राय कर्म करइ तिम ए कर्म जाणिवउं २। सुखदुःखादिकनुं जीणई कर्मिइं वेयवं हइ ते वेदनीय कर्म। मधुखरडी खांडानी धारना आस्वादिवा सरिखउं जाणिवउं ३। मिथ्यात्व, कषाय, राग, हास्यादिक भाव जीणई कर्मिइ करी हुइ ते मोहनीय कर्म। ए कर्म मद्यपान सरिखउं जाणिवउं। जिम मद्यि पीधइ अवेतथिकउ यथास्थित वस्तु न जाणइ, अनेरीइ हुइ अनेरी जाणइं इम ईणइ अदेव देव भणइ ४। जीणइ कर्मिइं जीव जीवइ ते आऊखुं कर्म हडि' सरिखं कहीइ ५। जीणई कर्मिइं मनुष्यादिक गति सइर, संघयण, वर्ण, स्वरादिक भाव हुइ ते अनेकभेद नाम कर्म कहीइ। ए चित्रकर सरिखु जाणिवू ६। जीणई कर्मिइ जीव उच्च नीचि गोत्रि अवतारिअइ ते गोत्रकर्म कहीइ। ए कुंभकार सरिखं जाणिवउं, जिम कुंभकार रुडाइ घडादिक करइ अनइ भूभलाइ करइ तिम ए कर्म जीवनई उँचाइ कुल आवइ नीचाइ कुल करई ७। जीणई कर्मिइं लक्ष्मी भोगादिकने संयोगे छते ए दान दिई न सकई, भोगादिक भोगवी न सकई, व्यवसाय करता लाभ न हुइ, सयरि मोटइ छतइ बलशक्ति न हुई ते अंबाय कर्म कहीइं। भंडारी सरीखउं, जिम भंडारी सानुकूल न हई तउ राजादिक दान देई न सकई तिम तेह ए कर्म जाणिवू ८।
पृथ्वीकाय जीव आपणा भवनइ त्रीजइ भागि अथवा नमइ भागि अथवा सत्तावीसमइ भागि अथवा
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