Book Title: Man Sthirikaran Prakaranam
Author(s): Vairagyarativijay, Rupendrakumar Pagariya
Publisher: Shrutbhuvan Sansodhan Kendra

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Page 143
________________ मन:स्थिरीकरणप्रकरणम् आहारोरलदुगदुग, इत्थीपुरिसूण हेउइगवन्ना। निरए मिच्छे साणे, उ मिच्छपणगूण छायाला।।१४९।। अण-कम्मण-वेउव्वियमीसं चइऊण मीसए चत्ता। सवेउव्वि मीसकम्मा, बायाला सम्म नेरईए।।१५०।। उरलदुगाहारदुगं, नपुवेयं चइय हेउबावन्नं। मिच्छसुरे साणे पुण, सगचत्ता मिच्छपणगूणा।।१५१।। कम्मणऽणंत-वेउव्वियमिसूणा मीसयम्मि इगचत्ता। वेउव्वि मीसकम्मणजुत्ता तिगचत्त सम्मसुरे।। १५२।। सोलसकसाय तेसिं, बंधोदय संतए भणे कमसो। सव्वगिहेसु वि मिच्छे, बिंदियपमुहट्ठसू साणे।।१५३।। मयवसओ भूदवणे, पत्तेयं सोल बंधुदय संते। तिरिमणुनिरसुरमीसे, बंधुदए बार सति सोल।।१५४॥ चउसु वि गिहेसु अजए, बंधुदए बार तह य संतम्मि। खयसंमि बार सोलस, उवसमखाउवसमसम्मे।।१५५।। तिरिमणु देसे अट्ठ उ, बंधुदए संति बार खयसम्मे। सोल दुसम्मे नरि चउ, पमत्त अपमत्त बंधुदए।।१५६।। सति बार खयगि सोलस, इयर दुसम्मे ह पुव्वबंधुदए। चउ तह संते बारस खयगे सोलोवसमसम्मे।।१५७।। नवमगुणे बंधुदया, भागदुगे तइयतुरियपंचमए। चउतदुगिक्काण कमा, अह संते खवगसेढीए।।१५८।। सोलसअटेक्काइसु, छेयविभागेसु नवसु जहकमसो। दुसु पंचसु एक्कक्के, बारचउतिगं तह दुगेक्कं ।।१५९।। नवमंसे जो नियडी, नो छिज्जइ ताव दुन्नि परमेगो। पा(बा)यरलोभो चिट्ठइ, जा नवमगुणस्स पजंतो।।१६०।। उवसमसेढीए वि य, तहेव बंधुदय नवरि संतम्मि। उवसमसम्मे सोलस, सयलगुणे बारखयसम्मे।।१६१।। दसमे तणुलोभुदओ, न हु बंधो तत्थ संति जहसंखं। एगो बारस सोलस, खवगे खंडे य उवसमगे।।१६२।। नणु जे वेयइ से बंधइ त्ति तो किमिह लोह न हु बंधो। सच्चं एसो नाओ, थूलकसाए न उण सुहुमे।।१६३।। न य बंधो न य उदओ, उवसंते बार सोल संतंमि। खंडोवसमगसेढिसु, खीणाइतिगं तु अकसायं।।१६४।। इय संसारिजियाणं, भणियमिणं इण्हि तव्विवक्खाणं। सिद्धाणं जहसंभवमेयाणि पयाणि चिंतेमो।।१६५।। केवलउवओगदुर्ग, दिट्ठी सम्मेग आगइ नरेहिं। साई अणंता ठिई, दुहावगाहो य सिद्धाणं।।१६६।। उक्कोसो धनुतिसई, तेतीसहिया धणुत्तिभागो य। सतिभागरयणि लहुओ, सिद्धेसु न सेसु वीसपया।।१६७।। इय पुढवाइपएसुं, जियगुणमाईणि चिंतयंताणं। कम्मवणगहणदहणं, भवमहणं होइ सुहझाणं।।१६८।। सिरिधम्मसूरिसुगुरूवएसओ सिरिमहिंदसूरिहिं। मणथिरकरणपगरणं, संकलियं बारचुलसीए।। १६९।। मणकविचवलो विसएसु धावए तस्स नियमणं परमं। मणथिरकरणं एयं, तो पढ गुण चिंत सयकालं।।१७०।।

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