Book Title: Mahopnishad
Author(s): Vijaykalyanbodhisuri
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 12
________________ महोपनिषद् अध्यात्मदर्शना तच्चांशतस्तदभाव एवेत्युपचारेण तत्र मोक्षत्वोक्तिरबाधितैव, घृतमायुरिति यथा, तद्धेतुभावश्च - जह जह दोसा विरमइ, जह जह विसएहि होइ वेरग्गं / तह तह विन्नायव्वं आसन्नं से य परमपयं - इत्यादिपारमर्षात् (इन्द्रियपराजयशतके) प्रतीतमेव / एतदेव प्रकारान्तरेण स्पष्टयति तपःप्रभृतिना यस्मै, हेतुनैव विना पुनः / भोगा इह न रोचन्ते, स जीवन्मुक्त उच्यते // 2-42 // प्रतिपन्नतपोविशेषतया मनोज्ञाहारादिभोगपरित्यागस्तु विरागमन्तरेणापि सम्भवति, स च संसारवासनाकलुषिततया न | जीवन्मुक्तिसाधकः, अतो विशिष्टनिर्देशः, सांसिद्धिक एव विरागप्रकर्षो जीवन्मुक्तिबीजमित्याशयः, उक्तञ्च - सर्वत्र दृश्यते स्वस्थः सर्वत्र विमलाशयः / समस्तवासनामुक्तो मुक्तः सर्वत्र राजते-इति (अष्टावक्रगीतायाम् ) / एतदेव प्रकारान्तरत आह - आपतत्सु यथाकालं, सुखदुःखेष्वनारतम् / न हृष्यति ग्लायति यः, स जीवन्मुक्त उच्यते // 2-43 // को नाम जीवन्मुक्त्यनुभूत्यनुभूयमानपरमानन्दात् पराङ्मुखीभूयाऽऽभासमात्रपर्यवसितबाह्यसुखदुःखोपयुक्तस्स्यादिति

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