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इस तरह महावीर अपने युग के तीर्थंकर थे । उन्होने मनुष्य के जीवन की तर्ज ही बदल दी। उसे वे हिंसा से अहिंसा की ओर ले गये, वैर से क्षमा की ओर ले गये, घणा से प्रेम की ओर ले गये, तृष्णा से त्याग की ओर ले गये। तीस्-तलवार के बजाय मनुष्य का आत्म-विश्वास अपने ही आत्म-बल पर टिका। ईसा मसीह को यह कहने की हिम्मत हुई कि-'यदि तुम्हारे एक गाल पर कोई थप्पड मारे तो उसके सामने अपन दूसरा गाल कर दो।' मनुष्य के आरोहण मे यह महत्त्वपूर्ण ऊँचाई थी। मीरा हसकर गा सकी कि-'जहर का प्याला राणाजी ने भेजा, मीरा पी-पी हासी रे ।' त्याग, बलिदान, सहिष्णुता और क्षमा के उपकरण मनुष्य के हाथ लगे और उसे अपने अनुभव से यह समझ में आया कि ये उपकरण घातक उपकरणो के मुकाबिले अधिक कारगर हैं। सारा पशुबल आत्मोत्सर्ग के सामने फीका पड जाता है ।
उलझन
यो महावीर ने मनुष्य को आत्म-विश्वास दिया, आत्म-बल दिया, सम्यक दृष्टि दी और अपने ही भीतर बसे शत्रओ से लोहा लेने की कोमिया मनुष्य के हाथ मे रख दी । यह एक ऐसी साधना थी जिस पर अहिंसा-धर्म का हर गही चल सकता था। मनुष्य ने चलना शुरू किया। युगो-युगो तक चलता रहा और आज भी इसे निजी जीवन का आरोहण मानकर वह चल रहा है। एक से एक ऊँचे साधक आपको समाज मे दीखेंगे-सब कुछ छोड देने वाले आत्मलीन महातपस्वी । वे अपने आप मे रममान रहे हैं बाहर से जैसे उन्हें कुछ छू ही नहीं रहा है। उनके चारो ओर समाज हिंसा की ज्वाला में ध-धु जल रहा है और वे सहज है, निश्चल हैं । बम गिर रहे हैं और बस्तिया नष्ट हो रही है-पर माधक अपनी साधना मे लीन है। उन्हे मनुष्य की तर्ज को बदलनेवाली हिसाओ से कोई मतलब नही । वे अपने खेमे मे भीतर हैं और वहां की छोटी-छोटी
महावीर