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मेरा ख्याल है इस कडवे सत्य को हम भीतर-ही-भीतर समझ रहे हैं और अति दीन बन कर हमने अपनी-अपनी वाणियो को कुण्ठित होने दिया है और निरर्थक बनने दिया है। इस आस्म-सतोष में हम पड गये है कि झगडे-पचडे की सब बातो से अलग हटकर हम राम-भजन करे, मन्त्रोच्चार करे, धर्म-ग्रन्थो का पारायण करे और यह सब भी नहीं करना हो तो कह दे-'सबसे भली चुप' ।
पर बात इस तरह बनेगी नही। वाणी की शक्ति हमे छिपने-छिपाने या बचने-बचाने के लिए नहीं मिली है। न दूसरो को तोडने के लिए मिली है और न अपना अहकार बढ़ाने के लिए मिली है। वह तो हमे मनुष्य को मनुष्य से, प्राणि-जगत् से और सम्पूर्ण सृष्टि से जोडने-जुडाने के लिए मिली है। भाषाएँ तो वाणी का महज विस्तार हैं-काणी भीतर की चीज है और भाषाएँ तथा बोलिया बाहर की। भीतर से वाणी कुन्द हो जाए, ठप्प पड जाए, निकम्मी बन जाए तो बाहर-बाहर का हमारा बोलना, चहचहाना, लिख-लिख कर ढेर कर देना क्या काम आयेगा? भीतर से हम बुझते जाएंगे और बाहर शब्दों का प्रम्बार खा कर देंगे तो इस महाबोझ से मनुष्य मरेगा ही, जीएगा तो बिल्कुल नहीं। हमारे सारे जयघोषो से, अमरवाणियो के उच्चारणो से, कीर्तनो-भजनो-पूजा पाठो से, प्रवचनो से और इन्कलाब जिन्दाबाद के नारो से वाणी का सारा ट्रेफिक जाम (यातायात ठप्प) है। आपके, मेरे भीतर अकुरित होने वाला प्यार, करुणा की मिठास, सवेदना की गरमी और आनन्द की सुरखी दौड ही नही पा रही है। वाणी तो कुछ दूसरे ही धन्धे मे पड गयी, उसे फुरसत ही नही है आपका-मेरा गुस्सा ढोने से, नफरत फैलाने से, अहकार के झटके देने से और स्वार्थ का जाल बिछाने से । भस्मासुर की तरह अब मनुष्य अपनी ही वाक्-शक्ति से भस्म होने जा रहा है ।
बचाना चाहेगे आप अपनी इस ऊर्जा को? कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। वाणी के तार यदि हम अपने हृदय से जोड दे तो बात सहज
जीवन मे?
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