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है कि वह कौन-से काम करे और कौन-से नही करे? यह सब हम खूब जानते हैं। अपनी-अपनी भाषा में अपना-अपना धर्म हम खडे दम उँगलियो पर गिना सकते हैं। और ले-देकर सब धर्मा का लब्बे-लुबाब-निचोड वही है जो आप जानते है, जो वह जानता है, जो मैं जानता हूँ। गहस्थ से लेकर सन्यासी तक सबको अपना धर्म स्पष्ट है।
फिर क्या उलझ गया है मनुष्य का? धर्म उसके आचरण में उतरता क्यो नही ? कितने-कितने तो व्रत-उपवास कर रहा है वह -मदिर जाता है, तीर्थ चढता है, जप-तप करता है, प्रभु-भक्ति में वह कई-कई बार गोते लगा लेता है। कीर्तन, भजन, श्रवण, ध्यान-धारणा-मौन, सब विधिया उसने अपना ली है। यो रात-दिन कर्म करता जाता है, विपरीत दिशा मे चलता जाता है और लोट-लौट कर फिर धर्म की देहरी पर मस्तक नवाता है, मुदित मन से अपने-अपने प्रभ के निहोरे खाता है कि-'अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल ।' धम के ये सारे प्रतीक--मदिर-मसगिद-गिरजाघर, कीर्तनभजन-श्रवण और व्रत-उपवामादि-मनण्य के धर्म-बसे । है । 'मेरो मन अनत कहा सुख पावै, जैसे उडि जहाज को पछी पुनि जहाज पै आवे ।' हम सब अपने कर्म-जगत् मे बहुत लम्बी-लम्बी उडाने ले रहे है । न जाने कितनाकितना समेट कर ला रहे है, अच्छा-बरा जो हाथ लगता है इस आपाध पी की दुनिया में वह सब अपनी झोली में डालकर हम अपने धर्म-बसेरा पर सुख की मास लेने लौट आते है। और यह क्रम निरन्तर जारी है। जैसे धर्म के ये सारे प्रतीक कोई आक्सोजन मॉस्क (मसक) हो जिन्हें लगाकर हम अपने कर्म-जपत् की विषैली वायु सहने की शक्ति पा जाएँगे । जहरीले-सेजहरीले पाचरण चलेंगे, क्योकि धर्म का प्राक्सीजन मॉस्क हमारे साथ है। __यह एक ऐसी माइरेज-मृगतृष्णा-है जो हमसे छ्ट ही नही रही है । हमने मान ही लिया है कि कर्म-जगत् में धर्म दाखिल करने की जरूरत नही है-मजिल यो ही पार हो जाएगी। बचपन मे एक कविता पढी थी
महावीर