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की दुनिया पर नजर डालता है तो देखता है कि उसने जिस 'करुणा' को जगाया और हजारो साल के अभ्यास के बाद जो 'अहिंसा-धर्म' उसके हाथ लगा वह तो समुद्र मे बूंद के समान है। वह खुद और उसका यह ससार अहिंसा के बजाय हिंसा से ही अधिक घिरा हुआ है। उसके निजी जीवन को ही लीजिए-मा अपने बेटे को समझाते-समझाते तग आकर तडाक से एक चाटा जड देती है। मा समझती है वह जीत गयी, बच्चा हार गया। गरीब कुछ कहना चाहता है, अपना दुख प्रकट करना चाहता है, पर मालिक के तेवर देखकर सहम गया है। बहुत गुस्से मे है, पर उसके हाथ मालिक पर नही उट रहे है-उसन अपने मन को मार लिया है। मालिक समझता है, उसकी चल गयी। जनता सत्ता के कान तक कोई बात पहुचाना चाहती है, नही पहुचती है तो वह तोड-फोड पर उतर आती है और बदले मे उधर से लाठिया बरसती है, गोलिया चलती है, कुछ पकड-धकड होती है । बस अब मामला शान्त है--करफ्यू उठ गया है, पुलिस हट गयी है, जनता ने घुटने टेक दिये हैं। शासन समझता है वह जीत गया। कभी-कभी जनता अपने आक्रोश से शासन को दबा लेती है और जीत अनुभव करती है। राष्ट्र और राष्ट्र के बीच तनाव चल रहा है । तोला यह जा रहा है कि शस्त्रो की ताकत और गुटो का दबाव किसके पास ज्यादा है। बात किसकी सही है और न्याय कहा खडा है, इसे नही देखता कोई । सिर्फ ताकत-आज़माई, और चाहे जब युद्ध भडक उठते है। घर से लेकर बाजार तक और गाव से लेकर राष्ट्र तक यह जो ताकत-आजमाई हो रही है वही हिंसा का 'ब्रीडिंग ग्राउण्ड-जन्म-स्थान' है । अब कोई तलवार लटकाये नही घूमता कि तन जाए तलवार हर बात पर, पर 'धौस' सबके पास है। मेरे पास कुछ ज्यादा होगी, आपके पास कुछ कम। पर यह सबका सहारा बन गयी है, जो हर बात पर उछल पडती है। यह हमारा अतिम औजार बन गया है-मनुष्य आतकित है, भयभीत है। जाने कब किसकी धौस क्या कर जाए?
जीवन में ?
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